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________________ भरतेश देभव २६५ भी शोकसंतप्त हुआ । तथापि धैर्य के साथ उनको उठाया। एवं अनेक 'विधिसे सांत्वना देनेके लिए प्रयत्न किया । बहनो! अब दुःख करने से क्या होगा ! मुक्तिको जो गये हैं वे लौटकर हमारे साथ पहिलेके समान क्या प्रेम कर सकते हैं ? शोकसे व्यर्थ दुःख करनेसे क्या प्रयोजन है ? उन्होंने शिवसुखके लिए प्रयत्न किया है ! भचसुखके लिए नहीं । ऐसी हालत में हमको आनन्द होना चाहिये । अविवेकसे दुःख करनेका कोई कारण नहीं | बहिनो ! संपत्तिको छोड़कर राज्य करनेवालेके समान देहको छोड़कर वे मोक्ष साम्राज्य में आनन्दमग्न हैं तो हमें दुःख क्यों होना चाहिये ? बुद्धिमती बहिनो ! नाशशील राज्यको पिताने पालन किया तो उस दिन तुमलोग बहुत प्रसन्न हो गई थीं। अब अविनश्वर मुक्ति साम्राज्यको पिता पालन करने लगे तो क्यों नहीं सन्तुष्ट होती ? दुःख क्यों करती है ? अपने पिताको शक्तिको तो देखो। तपश्चर्या में भी शक्ति की न्यूनता नहीं हुई । अर्धघटिका में ही कमको नदकर मुक्ति ब गये। तीन लोक में सर्वत्र उनकी प्रशंसा हुई । हमारे पिताजी सुखसे रहे, सुखसे मुक्ति गये, हमारे सर्व बंधु मुक्ति जायेंगे | इसलिए अपने को अब दुःख करनेकी आवश्यकता नहीं है । सहन करें, अपन मी कल जाकर उनसे मिल सकेंगे । बहिनो ! शोक करने मे शरीर कुश होता है, आयुष्य क्षीण होता है । तुम लोगों को मेरा शपथ है, दुःख मत करो। मंगल विचार करो । मंगल कार्य करो। इस प्रकार समझाकर अपनी बहिनों का दुःख दूर किया । उत्तर में बहिनोंने भी कहा कि भाई ! पहिले कुछ दुःख जरूर था, अब तुम्हारे वचनों को सुनकर तुम्हारा शपथ है, वह दुःख दूर हुआ । आादिराज और तुम सुखसे जीवो यही हम चाहती हैं। इस प्रकार कहतो हुई भाईको सर्व बहिनों ने नमस्कार किया । तदनन्तर सर्व बहिनों को स्नान देवाचंनादि करानेके लिए अपनी स्त्रियोंसे कहकर राजा अकीर्ति अपनो राजसभा में आये। वहीं पर अपने ३२ हजार बहुतोइयोंको उपचार वचनसे संतुष्ट कर सेवकों के साथ स्नानगृहमें स्नान के लिए भेजा । आदिराज और स्वयं भी स्नानकर देवपूजा को । बादमें सभी बंधुओंके साथ बैठकर भोजन किया। इस प्रकार पितृवियोग के दुःखको सबको सुलाया !
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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