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________________ २६६ भरतेश वैभव तदनन्तर उन बहनोइयोंसे अकोति ने कहा कि हमारे माता-पिताओंने हमको छोड़कर दीक्षा वनकी ओर प्रस्थान किया, अब महल सूनासा मालूम होता है। इसा: ए कुछ दिन आप लोग यहां रहें एवं हमें आनंदित करें। उन लोगोंने भी उसे सम्मति देकर कुछ समय वहींपर निवास किया। गुणोत्तम अर्कोतिने भी उनको व अपनी बहिनीको बार-बार अनेक भोग वस्तुओंको देते हुए उनका सन्मानकर आनन्दसे अपना समय व्यतीत किया। दूसरे दिन भानुराज विमलराज और कमलराज भी अपने पुत्र कलत्र परिवारके साथ वहाँपर आये। अकीति मादिराजके मामा हैं, इसलिए अकीर्ति आदिराजने भी उनका सामने जाकर स्वागत किया। विशेष क्या ? ननका भी यथापूर्व यथेष्ठ सत्कार किया गया, स्त्रियोंको भी स्त्रियोंके द्वारा सत्कार कराया गया, इस प्रकार कुछ समय वहाँपर आनन्दसे रहे। इसी प्रकार अकंकीतिसे मिलनेके लिए आनेवाले बाकी साढ़े तीन करोड़ बन्धुवाँका भी उन्होंने अपने पिताके समान ही आदरातिथ्यसे यथायोग्य सत्कार किया। __सबको समादरपूर्ण व्यवहारसे संतुष्ट कर, बहिनों व उनके पतियोंका भी सत्कार कर राजेन्द्र अर्मकीतिने कुछ समयके बाद उनकी विदाई की। भरतेश्वरक मुक्ति जानेपर लोकमें एक बार दुःखमय वातावरण निर्माण हुआ। परन्तु भरतेश्वर के विवेकी पूत्र अर्काकोतिने अपने विवेकसे उसे दूर किया। सम्राट् भरत ऐसे समयमें हमेशा उस गुरु हंसनाथके शरणमें पहुँचते थे । वहाँपर सदा सुख ही सुखका उनको अनुभव होता था। उनको हमेशा यह भावना रहती थी कि_हे परमात्मन् ! दुःख, ममकार और विस्मृति सब भिन्नभिन्न भाव है, इस विवेकको जागृत करते हुए मेरे हृदयमें सदा बने रहो। हे सिद्धात्मन् ! चन्द्रको जीतनेको धवलकोतिसे चन्द्र और सूर्यके समान विशिष्ट तेजको धारण करनेवाले चन्द्राकोति विजय ! हे मोक्षेन्द्र ! निरंजनसिद्ध ! मेरा उद्धार करो! इति सर्वनिवेग संधिः
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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