________________
भरतेश वैभव अजिंकाय आदि संयमीजन वहाँसे अन्य स्थानमें चले गये एवं सुखसे विहार करने लगे। इसी प्रकार देवेन्द्र, धरणेद्र गंगादेव, सिंधुदेव आदि व्यंतरोंने भी केवली, जिन, मुनिगण आदिके चरणोंकी वन्दना कर एवं अर्ककोति, आदिराजसे मिष्टव्यवहारसे बोलकर अपने-अपने स्थानमें चले गये। उसी प्रकार अर्ककीति आदिराज भी उन केवलियोंकी वन्दना कर अपने नगरमें चले गये । और गन्धकटियोंका भो इधर विहार हो गया।
मागधामर जब अपने महल में पहना तो उसे बार-बार अपने स्वामीका स्मरण हो रहा था, दुःखका उद्वेग होने लगा। जिन सभा में शोक उत्पन्न नहीं होता है। परन्तु यहाँपर सहन नहीं कर सका । शोकानेकसे वह प्रलाप करने लगा कि हे भरतेश्वर ! मेरे स्वामी ! देवेन्द्रको भी तिरस्कृत करनेवाले गंभीर ! विशेष क्या, पुरुषरूपी कल्पवृक्ष ! आए इस प्रकार चले गये ! हम बड़े अभागे हैं। आप वीरता, विनय, विद्या, परीक्षा, उदारता, शृंगार, धोरता आदिके लिए लोकमें अप्रतिम थे । हम कमनसीब हैं कि आपके साथ नहीं रह सके ! . राजसभामें आकर जब मैं तुम्हारा दर्शन करता था तो स्वर्गलोकका ही आनन्द' मुझे आता था। अपने सेवकको इस प्रकार छोड़कर मोक्षा स्थान में चले जाना क्या उचित है ? स्वामिन ! कभी मेरी प्रार्थनाकी ओर आपने उपेक्षा नहीं की। मुझे अन्य भावनासे कभी नहीं देखी। थाजपर्यत मेरा सत्कार बहत कुछ किया। ऐसी अवस्था में मुक्ति जाकर मुझे आपने मारा हो है इस प्रकार मागधामर उधर दुखित हो रहा था तो इधर गंगादेव और सिंधुदेव ( गंगासिंधुतटके अधिपति ) भो अपने दुःखको सहन नहीं कर सके । वे भी शोकोद्रिक्त हुए । हाय ! भावाजी आप हमें छोड़चले गये तो अब हमारा जीना क्या सार्थक है ? हमें यमदेव आकर क्यों नहीं ले जाता ? आपके सालोके रूपमें जब हमें लोग पहिचानते थे, उस समय अपने वैभवका क्या वर्णन करें कोई तक नहीं कर सकते थे। अब हमें किनका आप्रय है, किसके जोरसे हम लोग अपने वैभवको बतायें" इस प्रकार रो रहे थे जैसे कोई कंजूस अपने सुवर्णको खोया हो । स्वामिन् ! हम तो आपके सेवक बनकर दूर ही रहना चाहते थे । परन्तु हमारी सेवासे प्रसन्न होकर आपने ही हमें अपने बहनोई बनाये। परन्तु आश्चर्य है कि अब अपने बहनोइयोंको इस प्रकार कष्ट दिया । आपके प्रेमको हम कैसे भूल सकते हैं । इस प्रकार बहुत दुःखके साथ सर्व वृत्तान्त को अपनी पत्नी गंगादेवो व सिंधुदेवोके साथमें कहा { तब उन देवियोंका मी पुःखका पार नहीं रहा ।