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अधिपति मेवेश संमारसे विरक्त होकर दीक्षा लेकर चला गया, यह समाचार सुनकर उन सो पुत्रोंने भी संभारसे वैराग्यको प्राप्त कर लिया। तदनन्तर समवशरणमें जाकर भगवान आदिनाथसे तत्वोपदेश सुना एवं मोक्षमार्गको समनकर जिनदीक्षासे दीक्षित हो गये । यह समाचार मालूम होचेपर भरत चक्रवर्तीसे बड़ा गु: दृ । य ही साय रामः गया। वहांपर अपने पुत्रोंको देखकर तीर्थनापकी बड़ी भक्तिसे पूजा की। तदनन्तर भगवान् श्रादिनाथको निर्वाणपदको प्राप्ति हुई।
भरत चक्रवर्ती पुनः अयोध्याको आकर राज्यपालन करने लगा । एक दिन दर्पणमें मुख देखते समय अपने एक पके बालको देखकर उसे वैराग्य उत्पन्न हुवा । तत्क्षण अर्ककीतिका पट्टाभिषेक किया। तदनन्तर स्वयं ही अपने गुरु होकर दीक्षा ले ली एवं निश्चल ध्यानके बलसे तैजसकार्माण वर्गणाओंको जलाकर अन्तमुहर्तमें केवलज्ञानको प्राप्तकर क्रमशः भोक्षधाममें चला गया ।
मोक्षाविजय
अर्ककीर्ति राज्यका पालन करता था। परन्तु उसे जब यह समाचार मिला कि पिताश्री भरत मुक्तिको गये, तब उसका भी चित उदास हमा। राज्यसे मोहको छोड़कर अपमे छोटे भाई आदिराजके साथ जिनधीक्षा ले ली । फिर क्रमसे मूलोत्तर गुणोंका पालन करते हुए कुछ समय बाद निश्चल ध्यानके बलसे मुरिको गया।
अर्ककोतिविजय मुख्य पात्रवर्ग
कथासार उपयुक्त प्रकार है। इस साहित्यका मुख्य नायक भरत है। राजा भरत जैन तीर्थकरों में सबसे आदिके श्री आदिनाथ तीर्थकरके आदिपुत्र, आदिचक्रवर्ती व तद्भव मोक्षगामी षा। षट्लंडका पालन करते हुए भी वह आत्मानुभवी था । अतएव राजा होकर भी योगी या । भरतेशके बीवनको प्रत्येक दण्या अनुकरणीय है। विद्वान् कविने काव्यके मुख्य अंगको पूर्ण बल देकर उसे सुन्दर रूपसे चित्रित किया है। भरत चक्रवर्तीकी १३ हजार रानियाँ थीं और १२०० पुन तद्भव मोक्षगामी थे। सारांपा यह है कि भरतेच सतयुगके बादि महशुष थे। इसलिए उन्हीं के कारणसे इस देशको भरतखण्ड या भारत कहते हैं ।
भुजबकि राजा भरतका छोटा भाई है। मरतेश राजा होकर जिस समय अयोध्या, राज्यपालन कर रहा था, उस समय भुजगलि युवराज होकर पौवनापुरमें राज्यपालन कर रहा था । भुजबकि अपने नामके समान महावीर चा । षट्ाण्ड भरतके वशमें होनेके बाद भी भुजरलिने भरतकी बाधीनता स्वीकार नहीं की।