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एवं प्रजाओंका आन्तरिक हितचितक था । सदा उसे आत्मविनोदके कार्य में प्रसन्नता होती थी । वह अपने दरबार में बहुत से विद्वान् कवियोंके साथ कविताविनोदमें, संगीत विद्वानोंके साथ तद्विषयमें प्रातःकालके समयको बिताता था । देवपूजादि नित्य क्रमोंसे निवृत्त होकर ही वह प्रतिनित्य दरबार में आता था । दरबार बरखास्तकर सत्पात्रदान देनेके कार्य में लगता था । सुनियोंको आहार देकर भोजन करनेमें अपने को धन्य समझता था। भोजनानंतर दिनके शेष भागमें अपनी ९६ हजार गुनियों के साथ मोगयोग में लीन होकर गजयोगी होकर बहुतसे सुखोंका अनुभव करते हुए भी योगीके समान रहता था। इस प्रकार उसने अपने सत्कृत्यों से बबलयको प्राप्त किया । भोगबिजय
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एक दिन शहरे समय आयुषशालायें बायुषपूजा आदि करके वह राजा भरत दिग्विजयके लिए निकला। सबसे पहले मागध वरतन, प्रभास इत्यादि व्यन्तर राजाओ से सम्मानको प्राप्तकर उनसे बहुमूल्य भेंटको प्राप्त करते हुए, अन्य बट्सण्डवति राजाओंसे स्त्री रत्नादि भेंट प्राप्त करते हुए बहुत सुखके साथ उसने विग्विजयमात्रा की वह साठ हजार वर्ष विग्विजयमें रहा। बीच में उसे बारह सौ तद्भव मोक्षगामी पुत्ररत्नोंकी प्राप्ति हुई । उन सबका यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कारोंको बहुत समारम्भके साथ करते हुए जब दिग्विजयसे लौटा तब उसके छोटे भाई बाहुबलिने उससे बिरोष व्यक्त किया । युद्धके लिए सन्नद्ध होकर आया । भरतने अपने छोटे भाईके साथ युद्ध न करके अपने बचनचातुर्य ही उसे जीत लिया | बाहुबलि अपने अपराधके लिए पश्चात्ताप कर दीक्षा लेकर जिनयोगो बन गया । भरतेश महत समारम्भके साथ निज नगरप्रवेश कर fafaaurt काटको दूर करने लगा । विग्विजय
बाहुबलि जिन दीक्षा लेकर जंगलमें जाकर घोर तपश्चर्या कर रहा था । तथापि उसे आत्मसिद्धि नहीं हुई। इस समाचारको सुनकर भरतने अपने पिता श्री आदिनाथ भगवंत समदशरण में जाकर इसका कारण पूछा। पूछनेपर उसके हृदयमें अभीतक शल्य मौजूद है, जो बात्मसिद्धी के लिये बाधक है। ऐसा मालूम कर उसी जंगल में जाकर बाहुबलि योगीसे अनेक प्रकारसे प्रार्थना कर उसके शल्यको दूर कर उसे केवलज्ञानकी प्राप्ति कराई । भरतको माता यशस्वती देवी भी अनन्तवीर्य स्वामी से दीक्षा लेकर अर्जिका बन गई। कैलास पर्वतमें जो जिननिवास निर्माण कराये गये थे उनका मुखवस्त्रोद्घाटन भरत चक्रवर्तीने अपने सकल परिवारोंसे युक्त होकर विधिपूर्वक बहुत ही समारम्भ के साथ योगविजय
कराया ।
भरतचक्रवर्तीके सौ पुत्र विद्याध्ययन कर रहे थे। एक दिन हस्तिनापुरके