________________
( १२ ) शतक नामक शतकत्रय अन्धकी रचना की है एवं करोय २००० श्लोक प्रमाण अध्यात्म गीतोंकी रचना की है। उपयुक्त शतकत्रयमें रत्नाकरशतकमें वैराग्य रस अपराजितशतकमें भक्तिरस एवं तीसरे शतकमें त्रिलोकका वर्णन नै । वैराग्य और भक्तिशतक बहुत हो हृदयग्राही तुंगसे लिखे गये हैं। भरतेशवैभव में अपने गुरुको घारकीर्ति व शतकत्रयमें देवेंद्रकीर्तिके नामसे कवि उल्लेख करते हैं । इससे ये दोनों ग्रंथ भिन्न-भिन्न रत्नाकरके है ऐसा लोग समझेंगे। परन्तु यह बात नहीं है। कविके जीवनपदनामें दीक्षागुरु चारुकोति होनेपर भी जब उन्होंने उसे बहिष्कृत किया, तब वह देवेंद्रकीति के पास जाकर रहा होगा। चारुकीति मूडविदीके भट्टारकका नाम है । देवेंद्रकीति होमुच गादीके भट्टारक है। दोनों ग्रंथोंको रखनाशैली, यत्र-सत्र वर्णनसादृष्य आदि बातोंको देखनपर यह बात निश्चित हो जाती है कि दोनोंके कर्ता एक ही प्रसिद्ध रत्नाकर । मामला गारकि कान नामक उपाधि प्राप्त थी। यदि सतकत्रयके कासे यह रत्नाकर भिन्न माना जाए तो उस रस्नाकरका कोई श्रृंगार काव्य होना चाहिये जिससे वह उपाधि चरितार्थ होती। परन्तु अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। यही भरतेश वैभव उस उपाधिके लिये कारण है। इसमें कोई सन्देह नहीं। इसलिए ये सब रमनायें रत्माकरवों की है एवं कर्नाटक साहित्यमें अविसीय है। कालविचार
रत्नाकरने अपने कालके विषय में त्रिलोकशतककी रचना करते समय कहा है है कि "मणिशैसँगति इन्दु शालिशक ।" इस प्रकार कहनेसे इसका समय शालिवाहन शके वर्ष १४७९ होता है अर्थात् सन् १५५७ है। आजसे करीबकरीब पारसी वर्ष पूर्वका यह रत्नाकर है। रत्नाकरके विषयमें हमें विशेष लिखनेकी आवश्यकता नहीं। उमकी प्रखर विद्वसा उसकी स्वनाओंने ही स्पष्ट है । किस विषयमें उसकी गति नहीं थी हम यह कहने में असमर्थ है।
अपने ग्रन्धमें कविने प्रत्येक विषयका चित्रण किया है। श्रृंगार, अलंकार, अध्यात्म, संगीत आदि विषयोंका वर्णन करते हुए भोगयोगियोंको हर्ष उत्पन्न करनेकी शक्ति उसमें अद्भुत थी। यही कारण है कि उसका यह काव्य विद्वानोंको, यहाँतक कि बड़े-बड़े योगियोंको आवरणीय हुआ।
कथासार
कौशलदेशको अयोध्यानगरी में श्रीवृषभनाथ सोकरके पुत्र पदाधिपति भरतपक्रवर्ती बहुत आनन्द के साथ राज्यपालन करता था। यह अस्पन्त निपुण