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भरतेश वैभव भावोंके द्वारा मोक्षको सिद्धि नहीं हो सकती है । ध्यानके अभ्यासके समय परवस्तुओंके अवलम्बनसे काम लेना चाहिये, आत्मा आत्मामें स्थिर होनेके बाद अन्य संगका परित्याग करना चाहिये ।
खाने पीने व पहननेसे क्या होता है ? स्त्रियोंके साथ भोग करनेसे भी क्या बिगड़ता है ? परन्तु उनको अपने समझकर भोगनेसे बिगाड़ होती है, यदि उनको परवस्तु समझकर भोगें तो कोई चिंताकी बात नहीं है । परिणाममें आत्माको देखते हुए आत्मसुखका जो अनुभव करता है उसे स्वयंका सुख समझें एवं उस आत्मवस्तुको छोड़कर अन्य सभी परपदार्थ हैं, इस प्रकारको भावनासे उस आत्माकी हानि नहीं हो सकती है । भव्योंमें दो भेद हैं, एक तीवकर्मी व दुसरा लघुकर्मी । जिनका कर्म तीव्र है, कठिन है वे पहिले बाह्य पदार्थों को छोड़कर अनन्तर आत्म सुलकी साधना करते हैं । और जो लघुकर्मी अर्थात् जिनका कर्म मृदु है, वे बाह्यसंपत्ति वैभवोंके रहते हुए बात्मनिरीक्षण कर सरलतासे मुक्तिको जाते हैं। इसके लिए दूर जानेको क्या आवश्यकता है ? देखो ! आदि परमेश, बाहुबलि आदिने कठिन तपश्चर्याके द्वारा इस भवका नाश किया, परन्तु हमने तो बहत सरलतासे इस भवबन्धनको अलग किया, यही तो इसके लिए साक्षी है।
ध्यानसामर्थ्यको कौन जाने ? स्वयं स्वयंको देखें तो वह मालूम हो सकता है । हे भव्य ! अनेक विचारोंका यह सार है, विविध विचारोंको त्यागकर आत्मामें मनको लगाना यही मुक्तिके लिए साधन है ।
जैसे जैसे आस्मानुभव बढ़ता जाता है वैसे ही शरीर-सुख अपने आप घटता है, आत्मा आत्मामें मग्न हो जाता है, बाह्य पदार्थोंके परित्यागसे आत्मसुखकी वृद्धि होती है।
आत्मामें आत्माके ठहरनेपर कमकी निर्जरा होती है । शरीर आत्मासे भिन्न हो जाता है | आत्मसिद्धिको कोई दूसरे नहीं देते हैं। अपने आप ही यह भव्य प्राप्त कर लेता है। परमाणुमात्र भी परवस्तु या पुद्गलका संसर्ग न रहे एवं स्वयं शुद्धात्मा रहे, इसीको आत्मसिद्ध कहते हैं ।" इस प्रकार भरतजिनेन्द्रने देवेन्द्रको प्रतिपादन किया।
इतने बीच में ही आकर पुत्र, मित्र व मंत्रियों से कुछने कहा कि देवेन्द्र ! जरा ठहरो, हमें भी एक काम है। आगे बढ़कर भरतकेवलोसे उन लोगोंने प्रार्थना की कि स्वामिन् ! हम लोगोंको दीक्षा देकर हमारा