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भरतेश वैभव
२३९ भगवान् आदि प्रभुके मुक्ति जानेपर उनके साथ जो केवली चारणमुनि वगैरह थे वे सब इधर-उधर चले गये थे । भरत जिनेन्द्रको गंधकुटीका निर्माण होनेपर सब लोग वहाँपर आकर एकत्रित हुए मालूम होता है कि पिताको सम्पत्ति पुत्रको मिलनेको पद्धति ही यहापर भी चरितार्थ हुई। पिताका मत्री पुत्रको भी प्राप्त हो वह साहजिक एवं शोभास्पद है। इसलिए तेजोराशि मुनिनाथ भो वहाँपर आये व भरतजिनेन्द्रकी वन्दना कर यहाँ बैठ गये। __देवेंद्र धरणेंद्रने भी अपनी देवयिोंके साथ पादानत होकर उस दुरित. निधूमधान-भरतकेवलीको अनेकविध भक्तिसे स्तुति की, वन्दना को, पूजा की । देवगण भी वहाँपर भक्तिसे आये, भूतलपर जो भव्य थे वे भी सोपानमानसे गंधकुटीमें माये । एवं मिनेश्वरको संतोष व भक्तिके साथ सब लोगोंने नमस्कार किया।
अर्कको ति व आदिराज कुमारका मुख अर्क (सूर्य) के दर्शनसे खिलनेवाले कमलके समान हर्षसे युक्त हुए। बाकोके मंत्रो, मित्रोंको भो मित दर्शन झालालिम सजा दुश
देवेंद्रने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि स्वामिन् ! परमात्मसिद्धि कैसे होती है ? कृपया फरमावें । इतनेमें भरत सर्वशन्ने दिव्यध्यनिके द्वारा 'विस्तारसे वर्णन किया । उसका क्या वर्णन करें ?
'हे देवेंद्र ! सुनो ! आत्मसिद्धिको प्राप्त करना कोई कठिन नहीं है? आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है। इस प्रकारके विवेकसे अपनेसे ही अपनेको देखने पर आत्मसिद्धि होती है। इस प्रकार आत्मार्थी देवेन्द्रको प्रतिपादन किया।
पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य, सप्ततत्व और नव पदार्थों में आत्मा ही उपादेय है, बाकोके सर्व पदार्थ हेय हैं। चेतन हो या अचेतन हो, चेतनके साथ अचेतन मिश्रित होकर जब रहता है तब वह परपदार्थ है। केवल पवित्र आत्मा ही स्वपदार्थ है।
परवस्तुओंमें जो रत है वे परसमयो है और आत्मामें निरत है वे स्वसनयी है । परवस्तुओंके अवलंबनसे बंध है, अपने आत्माके अवलंबनसे मोक्ष है । यही इसका रहस्य है।
आप्त, आगम और गुरुकी उपासना करनेसे शरीर-सुखकी प्राप्ति होती है। कैवल्य सुखके लिए अपने आपको देखना चाहिए। अन्य