________________
२३८
भरतेश वैभव चार धातिया कोंके नष्ट होनेसे अनन्त चतुष्टयको प्राप्ति हुई। अनन्त चतुष्टयोंके साथ पांच बातोंको मिलाकर नवकेवललब्धिके नामसे उल्लेख करते हैं, वह विभूति उस निरंजनको प्राप्त हो गई है । केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख व केवलवीर्यको अनन्तवतुरुकके नामसे कहते हैं। वह अनुपम सम्पत्ति उसके वश में हो गई है । मद, निद्रा, क्षुधा. मरण, तुषा आदि अठारह दोष तो अब दूर हो गये हैं । देवेन्द्र, चक्रवर्ती, धरणेन्द्रसे भी बढ़कर अगणित सुखका वह अधिपति बन गया है। विशेष क्या, उसे निज सुखकी प्राप्ति हो गई है।
उस समय यह परमारमा ज्ञानके द्वारा समस्त लोक ब अलोकको एक साथ जानता है, और दर्शनके द्वारा एक साथ देखता है । मिट्टोको थालीको उठानेके समान इस समस्त पृथ्वीको नमानेकी अताल या उसे अब प्राप्त हो गया है कर्मका आवरण अब दूर हो गया है। अतएव शुद्धात्मक वस्तुको चित्प्रभा बाहर उमड़कर आ गई है। कोटिसूर्य-चन्द्रोंका प्रकाश उस समय परमात्माके शरीरसे बाहर निकलकर लोकमें भर गया है। कर्मका भार जैसे-जैसे हटता गया शरीर भी हल्का होता गया। इसलिए परमज्योतिर्मय परमात्मा उस शिलातलके एकदम ऊपर आकाशप्रदेशमें लाँधकर चला गया । शायद सुन्दर सिद्धलोकके प्रति गमन करनेका यह उपक्रम है, इसलिए वह शुद्धात्मा उस समय भूतलसे पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर आकर आकाशप्रदेशमें ठहर गया। जिन्होंने परदा पर लिया था अब दूर हटे | आश्चर्यचकित होते हुए जय-जयकार करते देखते हैं तो भरतजिनेन्द्र आकाश प्रदेशमें ऊपर विराजमान हैं। सबने भक्ति के साथ वंदना को।
स्वर्ग में देवेन्द्रने भरतेशकी उन्नतिपर आश्चर्य व्यक्त किया एवं अपनी देवीके साथ ऐरावत हस्तिपर आरूढ़ होकर भूतलपर उतरने लगा। देवेन्द्र ऊपरसे नीचे आ रहा है तो पाताल लोकसे धरणेन्द्र व पदमावती व परिवारके साथ अनेक गाजेबाजेके साथ ऊपर आ रहा है इसी प्रकार अनेक दिशाओंसे किन्नर व किंपुरुषदेव भरत जिनेन्द्रकी स्तुति करते हुए आनन्द से आ रहे हैं । वे कह रहे थे कि हे भरत जिनेश्वर ! भवरोगवैद्य ! सुंदरोंके सुंदर ! आप जयवन्त रहें। ___ कुबेरने उसी समय गन्धकुटीकी रचना को | और उसके बीच में सुंदर सुवर्ण कमलका निर्माण किया । उसको स्पर्श न करते हुए कुछ अन्तरपर उसके ऊपर कमलासनमें भरत जिनेन्द्र शोभाको प्राप्त हो रहे हैं।