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भरतेश वैभव
मरतेशनिवेगसंधिः भरतेश्वरको कीति त्रिभुवनमें व्याप्त हो गई है । भरतेशके तेजके सामने सूर्य भी फीका पड़ता है। इस प्रकारको वृत्तिसे सम्राट् राज्यका पालन कर रहे हैं । चतुरंगके खेल के सिवाय लोकमें युद्धक्षेत्रमें उसको प्रतिमट करनेवाले वीर नहीं हैं । समुद्र स्वयं अपने तटको दबाकर जाता है, अपितु मदसे लोफमें कोई उसे दबानेवाले नहीं हैं । उसकी वीरतासे भिन्नभिन्न देशके राजा पहिले उनके वशमें आ गये हैं । अब वे भरतके शृंगार व उदार गुण के लिए भी मोहित हो गये हैं। एवं सदा उनकी सेवा करते हैं । भरतेशके सौंदर्य, शृंगार, बुद्धिमत्ता एवं गांभीर्य के लिए पाताल लोक, नरलोक, सुरलोक) प्रसन्न न होनेवाल कोई नहीं हैं । अतरंगमें पंचसंपत्ति और बाहर अतुल भाग्यके साथ साम्राज्य वैभव भोगको भोगते हुए उन्होंने बहुत आनन्दके साथ बहुत काल व्यतीत किया |
भरतेश्वरका आयुष्य चौरासी लाल पूर्व वर्षीका था। ७० खरब व छप्पन अर्बुद वर्षोंका एक पूर्व होता है। ऐसे ८४ लाख पूर्व वर्षोंकी स्थिति भरतचक्रवर्ती की थी। इतने दीपं समय तक वे सुखका अनुभव कर रहे थे । योगको सामयंसे शरीरका तेज बिलकुल कम नहीं हुआ। जवानीको हो कोमल मुछे, बाल सफेद नहीं होते । सारांश यह है कि भरतेश सदा भरजवानीसे ही भोगको भोग रहे हैं। धन्य है। यह क्या प्राणायामको सामथ्र्य है ? अथवा ब्राह्मणोंके आशीर्वादका फल है या जननीके आशीर्वादका फल है, अथवा जिनसिद्ध या हंसनाय परमात्माको महिमा है. न मालूम क्या, परन्तु उनकी जमानीमें कोई कमी नहीं होती है। "चिता ही बढापा है, संतोष हो यौवन है" इस प्रकार बनेको परिपाटी है। सचमुचमें भरसेशको कभी किसीकी चिंता नहीं है, सदा आनन्द ही आनन्द है । फिर बुढापा कहाँसे आ सकता है ! बुढी स्त्रियोंके साथ भोग करनेसे बुढापा जल्दी आ सकता है । सुन्दरी जवान स्त्रियोंके साथ सदा भोग करने वाले भरतेशको बुढापा क्योंकर आ सकता है ? हमेशा जवानी ही दिखती थी।
राजगण छोट छोटकर उत्तमोत्तम कन्याओंको लाकर भरतेश्वरके साथ विवाह करते थे । उनको भरतेश मोगते थे | जब वे स्त्रियां वृद्धत्वको प्राप्त होती तो उनको छोड़कर नवीन जवान स्त्रियोंके साथ भोग करते थे।
उन तणियोंके साथ संभोग करते हुए एवं आनन्द मनाते हुए शरीरके