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________________ २२४ भरतेश वैभव मदको बुद्धिमान भरतेश कम करते थे। एवं इसी प्रकार उस परमात्माके दर्शनसे कर्मकी निर्जरा करते थे। अंत पुरकी देवियां यदि आपसमें आनंदसे खेलना चाहें तो उनको भग्तेश खेलकूदमें लगाकर स्वयं राम. दरबार में पहुंचकर वहाँपर राजाओंको प्रसन्न करते थे। एक दिनकी बात है। भरतेश बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओंके दरबारमें सिंहासन पर विराजे हुए हैं। उस समय एक घटना हुई। वहाँपर जो मुखचित्रक था, उसने भरतेशको दर्पण दिखाया । शायद इसलिए कि सम्राट् देखें कि अपना मुख बराबर है या नहीं ? भरतेशने दर्पणमें अच्छी तरह देखा। मुख थोड़ा-सा झुका हुआ-सा मालूम हुआ । शायद भरतेशने विचार किया कि इस राज्यपालनको अब जरूरत नहीं है । बारीकीसे देखते हैं तो भरतेशके कपालमें एक झुरको देखने आई। शायद वह मुक्तिकांताको दूती हो तो नहीं । उसे मुक्तिलक्ष्मोने भरतेशको शीन बुलाने के लिए भेजी हो, इस प्रकार वह मालूम हो रही थी। भरतेशने उसी समय विचार किया कि ध्यानयोगके करनेवालेके शरीरमें इस प्रकार अन्तर हो नहीं सकता है। फिर इसमें क्या कारण है ? आश्चर्यके साथ जब उन्होंने अधिज्ञानका उपयोग किया तो मालूम हुआ कि आयुष्य कर्म बहुत कम रह गया है । अब मुझे मुक्ति आतसमीप है, कल. ही मुझे मोक्षसाम्राज्यका अधिपति बनना है। इस प्रकारका योग है । घातिया कर्मोका तो आज ही नाश होना है । इस प्रकार उनको निश्चित रूपसे मालूम हुआ। ___ भरतेश अन्दरसे हंसते हुए हो विचार करने लगे कि ओहो ! मैं भूल ही गया हुआ था, अब इस झुरकीने आकर मुझे स्मरण दिलाया । अच्छा हुआ। चलो, आगेका कर्तव्य करना चाहिये । ___ संसार सुखकी आशा विलीन हुई । अब सम्राट्के हृदयमें वैराग्यका उदय हुआ। यह विचार करने लगा कि मुक्ति अब अत्यंत निकट है। संसार और भोगमें कोई सार नहीं है । जब शरीरमें जरितदशा देखने में आई तो अब कन्याओंके साथ क्रीडा करना क्या उचित है ? बस रहने दो, मेरे लिए धिक्कार हो। तपश्चर्यारूपी दुग्धको सेवन न कर केवल मुग्धोंके समान विषयविषको सेवन करते हुए मैं आज पर्यंत दाध हुआ । हाय ! कितने दुःखको बात है ? "मेरे आचारके लिए धिक्कार हो ! तपश्चर्यारूपी क्षीरसमुद्रमें डुबकी
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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