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भरतेश वैभव
निकाल रहे थे । अर्थात् पुंवेदकमको पिघला रहे थे । कसरतके द्वारा अपने शरीर के आलस्य को दूर कर प्रसन्नतासे जैसे मनुष्य रहता है, उसी प्रकार माधुर्यवचनसे युक्त स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा कर हँससमाधि में वे बने रहते थे । भेदविज्ञानका सुख सभी कर्मनिर्जराके कारण है । वह दूसरों को दीखनेवाली कला नहीं है । केवल स्वसंवेदनागम्य है। स्त्रियोंके स्तनपर पड़ा हुआ, योगी रह सकता है। पर्वतकी शिलाके ऊपर स्थित मोही हो सकता है। यह सब परिणामका वैचित्र्य है। ललित आत्मयोगके रहस्यको कौन जाने ? अपनी स्त्रियोंके साथ आनन्द करते हुए, अपने साढ़े तीन करोड़ बंधुओं को संतुष्ट करते हुए, षट्खंडसे सत्कोसिको पाते हुए सार्वभौम भरत अयोध्या में आनन्दसे समय व्यतीत कर रहे हैं । चर्मचक्षुके द्वारा अपने राज्यको देखते हुए एवं ज्ञानचक्षुसे निर्मल मात्माको देखते हुए राजा मरत अपार आनन्द के साथ राज्य पालन कर रहे हैं। यह उनको राज्यपालन व्यवस्था है।
भरतेश्वरका पुण्य असदृश है । अप्रतिम खानन्द, अतुल भोग, अद्वितीय ave होते हुए भी भरतेश उसे हेयबुद्धिसे अनुभोग करते हैं। केवल कर्कोका नियोग है, उसे कही पूर्ण करना चाहिए। उसके बिना उन मका अन्त भी कैसे होगा । शरीर भोग, वैभवादिक सभी कर्मजनित सुख साधन हैं। इनकी हानि गृहस्थाश्रममें तो दानसे या भोगसे होती है । सर्वथा अन्त तो तपसे ही होता है। उसके लिए योग्य समयकी आवश्यकता होती है | अतः भरतेश सांसारिक जीवनमें वैभवको दान व मोगके द्वारा क्षीण कर रहे हैं। परन्तु विशाल भोगोके बोध में रहते हुए भी यह भावना करते हैं कि
हे चिदम्बरपुरुष ! अनुपम सुज्ञान राज्यको वंशों दिशाओं में व्याप्त करते हुए एवं नवीन कांति व रूपको धारण कर मेरे हृदय में सवा बने रहो ।
हे सिद्धात्मन् ! आप गरीबोंके आधार है । विद्वानोंके मनोहर हैं। विवेकियोंके मान्य है । इसलिए हे पारसके समान इच्छित फल देनेवाले निरंजन सिद्ध ! मुझे सन्मति प्रदान कीजिये ।
इति राज्यपालन संधिः
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