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________________ भरतेश वैभव २१९ तही रस्नोंकी प्राप्ति मनुष्योंको होतो है । और भूमिमें गड़ी हुई सम्पत्ति मिलती है । जंगल में सर्वत्र श्रीगंध व कर्पूरलतायें हैं | नगर में सर्वत्र त्यागी व भोगियोंकी सम्पदाएँ भरी हुई हैं ! बड़े जते घड़े में भरकर दम देनेवाली गायें, विश्व को मोहित करनेवाली देवियों, नील कमल, कमलसे मुक्त तालाब, गंधशालीसे युक्त खेत, सुन्दर व सुगन्धित पवनोंसे युक्त उपवन आदिसे बहाँ विशिष्ट शोभा है। नगरमें अन्नछत्र, धर्मशाला व मार्गमें कच्छ नारियलका पानो, शक्कर व प्याकको व्यवस्था है। भिन्नभिन्न वार, तिथि आदि के समय व्रत आराधना वगैरहके साथ मुनिमुक्ति, ब्राह्मण भोजन, सन्मान आदि हो रहे हैं । आज कलियुग होनेसे देव व व्यंतर मनुष्योंको दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं, परन्तु भरसेशका युग कृतयुग था । उस समय देवगण, मनुष्योंके साथ हिल-मिलकर रहते थे, कोड़ा करते थे । शानकल्याण के लिए, निर्वाण कल्याणके लिए जब वे देवगण इस धयतलपर उतरते हैं, तो मनुष्य उनको देखते हैं एवं उनके साथ मिलकर भगवंतको पूजा करते हैं, उस समयके उत्सवका क्या वर्णन किया आय ? भूमि व स्वर्गका व्यवहार चल रहा था, सर्वत्र सम्पत्तिका साम्राज्य था। भरतेश को राज्यपालनकी चिता बिलकुल नहीं है । जिस प्रकार मन्दिरके भारको भीत, खम्भे वगैरहके ऊपर सौंपकर भगवान् अलग रहते हैं, उसी प्रकार भरतेश षट्खंडभारको अपने आप्त मंत्रिमित्रादिकोंको सौंपकर स्वयं सुख में हैं । बाहिर सेना व प्रजाओंको जैसा देखते हैं तो अंतरंगमें अपनी देवियों के साथ आनन्द भी मानते हैं परन्तु किसीके यहाँ निमंत्रणसे भोजन को जानेवाले के समान । प्रजाओंको वे देखते हैं, जैसे कोई मुनि तपोवनको देखता हो । अपने पुत्रों की ओर उनका उतना ही मोह है जितना कि एक मनिका अपने शिष्योंपर होता है। खजाने, भंडार आदिको वे उसी दृष्टिसे देखते हैं जैसे कोई वेतनभोगी भंडारी देखता हो । लोग तो उस निधि को सम्राटकी कहते हैं । परन्तु स्वयं सम्राट् उसे अपनो नहीं समझते हैं । पर्खद्ध पदको वे एक पुण्यसम्बन्धसे प्राप्त एक मेलाके समान देख रहे हैं । उसे अपनेसे भिन्न समझकर भोग रहे हैं। भरतेश स्वयं धारण किए हुए शरीरको भी जब अपनेसे भिन्न समझते हैं तो इतर वैभवके जालमें वे कसे फंस सकते हैं? परमात्मारसिकके रहस्यको कौन जाने ? पूण्यफलको अनुभव करके कम कर रहे हैं। एवं आत्मलावण्यका साक्षात्कार कर रहे हैं । फिर उनको मुक्ति प्राप्त करना कोई गण्य है ? अपितु सरल है । इस प्रकारकी वृत्तिमें वे अपना समय व्यतीत कर रहे हैं।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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