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भरतेश वैभव
के लिए उनको एक समय भी अधिक नहीं लगा । कैलास पर्वतपर पल्यंकासन में विराजमान थे, इसलिए मुक्तिस्थानमें भी आत्मप्रदेश उसी रूपमें पुरुषाकारसे सिद्धों के बीच प्रविष्ट हुए। तनुवातवलय नामक अन्तिम वातवलय में भगवंत सिद्धों के बीच में विराजमान हुए। अब उन्हें जिन या अरहंत नहीं कहते हैं । उनको यहाँसे सिद्ध नामाभिधान हुआ। आठ कर्मोके नाश होनेसे आठ गुणों का उदय यहाँ हुआ है । अब वे परमात्मा संसार समुद्रको पारकर आठवी पृथ्वीमें पहुंचे हैं।
क्षायिक सम्यक्त्व, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवोर्य सूक्ष्म, अवगाह अगुरुलघु और अभ्याबाष इस प्रकार उत्तम अष्ट गुणों को अब परमात्माने पा लिया है। अब वहाँसे इस संसारमें लौटना नहीं होता है । अनन्त सुख है । सामान्य नर सुर व उरगोंको वह अप्राप्य है। ऐसे मुक्तिसाम्राज्य में वे रहते हैं ।
भगवंत मुक्ति जानेपर जब उनका देह अदृश्य हुआ तो समवशरण भी अदृश्य हो गया । जैसे कि मेघपटल व्याप्त होकर अदृश्य होता है समवशरणके अदृश्य होनेपर केवलियोंकी गंधकुटियां भी इधर उधर गई । आदिप्रभुके न रहनेपर वहाँ अब कौन रहेंगे ? पिताके यागको टकटकी लगाये भरतेश्वर देख रहे थे, जब आदिप्रभु लोकाग्रत्रासो बने व इधर उनका शरीर अदृश्य हुआ तो सम्राट्का मुख मलिन हुआ। अंतरंग में दुःखका उद्रेक हुआ । मूर्च्छा आना ही चाहती थी, धैर्यसे सम्राट्ने रोकने का यत्न किया । पितृमोहकी परकाष्ठा हुई, सहन नहीं कर सके, मूच्छित हुए। खड़े होनेसे मूर्च्छा आती है, जानकर वहाँ मौनसे बैठ गये । तथापि दुःखका उद्रेक हो ही रहा था । पितृ-वियोगका दुःख कोई सामान्य नहीं हुआ करता है। मित्रोंने शोतोपचारसे भरतेश्वरको उठाया | पुनः आंसू बहाते हुए उस शिलाको ओर देखने लगे हा ! हा ! स्वामिन् मेरे पिता ! मोहोसुरदर्पमंथन ! मुझे बाह्य संसार में डालकर आप मुक्ति गये। क्या यह उचित है ? मुझे पट्टरूपो पाशमें बाँधकर ऊपरसे राज्यरूपी बोझा और दे दिया | फिर भी आखेरको मुक्तिको न ले जाकर यहीं छोड़ चल बसे । महादेव ! क्या यह उचित है। मुझे इच्छित पदार्थोंको देकर बहुतकाल संरक्षण किया, फिर अन्तमें इस प्रकार छोड़ जानेके लिए मैंने क्या अपराध किया है ? आपको सभा किधर गई ? आपका शरीर कहाँ है ? आपके साथी की गंधकुटिया कहाँ हैं ? कैलासपर्वतको शोभा भी अब चली गई । बाकी के जीवनकी बात हो क्या है ? आपको देखकर में भी आज ही सर्व संग