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भरतेश वैभव
२१३ परित्यागो बनूं व दीक्षा लं, यह मेरा कर्तव्य है । परन्तु यह पुण्यकर्म जो मुझे घेग हुआ है, मुझे नहीं छोड़ता है। क्या करूं ? अब दुःख करनेसे क्या प्रयोजन है ? आपके द्वारा प्रदर्शित योगमार्ग में ही मैं भी आऊंगा। 'श्रीगुरुहंसनाथाय नमोस्तु' इस प्रकार कहते हुए हृदयको समझाया । दुःख में शांतिको धारण किया।
वृषमसेन गणधरने चक्रवर्तीको समझाया कि भव्य ! वृषभेश गये तो क्या हुआ ? वे चर्मचक्षुके लिए अगोचर बन गये, आत्मलोचनसे उनका दर्शन हो सकता है। फिर तुम दुःख क्यों करते हो ? समझमें नहीं आता | तुम्हारे पिताने तुमको कहा था कि, भरत ! तुमको मुक्तिको आनेके लिए मेरे जितने कष्ट सहन नहीं करने पड़ेंगे । तुम बहुत विनोदके साथ मुक्ति पहुँचोगे । इसलिए जल्दी तुम्हारे पित्ताको देखोगे। मिद्ध लोकमें जब तुम्हारे पिताजी विराजे हैं तो हा आतचों · वृद्धि हो चाहिए ऐसा का बद्धोंके समान दुःख करना क्या तुम्हारा धर्म है ? इस प्रकार योगीन्द्रने भरतेश्वरको विशपथका प्रदर्शन किया । उत्तर में सम्राटने निवेदन किया कि योगिराज ! आपका कहना बिलकूल सस्थ है, परन्तु मोहनीय कर्म आकर दुःख देता है, उसी मोहके बलसे थोड़ासा दुःख हुआ है । क्या करें, माताने दीक्षा ली, मेरे भाईको मोक्ष हुआ परन्तु उस समयके दुःखको समवशरणने रोका। क्योंकि जिनेन्द्रके सामने दुःखकी उत्पत्ति नहीं होती है परन्तु अब यहाँ जिनेंद्रके न रहनेपर शोकोद्रेक हुआ। परन्तु समझानेपर चला गया।
देवेन्द्र भी आश्चर्यचकित हुआ । त्रिलोकपति पिताके वियोगको ऐसा पुत्र कैसे सहन कर सकता है ? दुःखोद्रेक होनेपर भी इसने हृदयको समझाया यह कोई मामूली बात नहीं है । धन्य है ! देवेन्द्र चक्रवर्तीके कृत्य पर अधिक प्रसन्न होकर कहने लगा कि सार्वभौम ! लोकमें लोग बातें बहुत कर सकते हैं । परन्तु जैसा बोले वैसा चलना मात्र कठिन है, परन्तु तुम्हारी बोल और चाल दोनों समान है। उनमें कोई अन्तर नहीं है। इसी प्रकार धरणेंद्र बोला कि सुख में, आनन्दमें रहते हुए सब लोग बड़ीबड़ी लम्बी-लम्बी गप्पे हांक सकते हैं। परन्तु असह्य दुःखका प्रसंग जब आ जाता है तो उसे मुखसे कहना भी अशक्य हो जाता है। इस समयको जानकर नमिराज बोल कि भगवान् अमृतलोकमें हैं, हमें भी यहाँ मोह क्यों ? वहोंपर हमें भी जाना चाहिए | सम्राट्ने शोकको सहन किया, महदाश्चर्य है। इसी प्रकार बाकीके साले व मित्र, राजागा आदिने मिष्ट