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________________ Wil -In भरतेश वैभव इन प्रकृत्तियों का अयोगकेवली गुणस्थानके चरम समयमें अन्त होता है। इस प्रकार अघातिया कर्मोकी अवशिष्ट ८५ प्रकृतियोंको तीर्थकरयोगी आत्मासे अलग करते हैं | आत्माको छोड़कर शेष सर्व पदार्थ मेरे नहीं है, उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, इस बातका निश्चय पहिलेसे तीर्थकर योगीको है । जगत्के अप्रभागमें स्थित सिद्ध भी जब कनसे भिन्न गे जगत्की बात ही क्या है ? अब तीन शरीरोंको दूरकर मुक्ति प्राप्त करना ही शेष है । इसलिए उस कार्यमें भगवान् उद्युक्त हुए । अब तो उनकी दशा तो ऐसी है कि स्फटिकके पात्र में दूध भरा हो तो जो निर्मलता है, उससे भी बढ़कर निर्मलताको प्राप्त शरीरमें बात्मा विशुद्ध भावोंमें डुबकी लगा रहे हैं। अत्यन्त विशाल क्षीरसमुद्रको एक घड़े में भरनेके समान विशाल आत्माको इस देहमें भर दिया है, उसका साक्षात्कार भगवंत कर रहे हैं। आकाशको एक गजसे मापनेके समान, त्रिलोकको भी न कुछ समझनेके समान एवं करोड़ों समुद्रोंको सरलतासे पार करनेवालेके समान अत्यन्त निराकुलता वहां छाई हुई है। शरीररूपो कुम्भमें स्थित आत्मरूपो क्षीरसमुद्रमें सम्यक्त्व पवंतरूपी मयनको घिद्भावको रस्सी लगाकर मथित कर रहे हों उस प्रकार उस ध्यानको दशा थी । वहाँपर घड़ा, दूध, मथा, रस्सी आदि सभी भिन्न-भिन्न हैं । यहाँपर केवल घड़ा भिन्न है, बाको सर्व एक रूप होकर मंथन किया होरही है। आठ क्षायिक गुणों में चार गुणोंकी प्राप्ति तो पहिलेसे हो भगवतको हो चुकी है । अब रहे चार गुणोंको प्राप्तिके लिए गुणगुणी भेदको भुलाकर भगवान् अपने आस्मस्वरूपको ओर देख रहे हैं एवं दुर्गुण कर्मोंको दूर कर रहे हैं । करके स्वरूपमें ही स्थित तैजसकामंणोंको परमारमाने अब निस्तेज बना दिया है । अब तो वे प्रकाश में हो डुबकी लगा रहे हैं, प्रकाशमें हो स्नान कर रहे हैं, प्रकाशमें हो अलकीड़ा कर रहे हैं । इस प्रकार प्रकाशमय परमात्मामें वे मग्न हैं। एक दफे प्रकाश तेज व फिर मंद, इस प्रकारके परिवर्तनसे युक्त धर्मध्यान वहाँपर नहीं हैं। वहाँपर परमशुक्लध्यान है, इसलिए शरीरमें सर्वत्र निर्मलास्माका हो दर्शन होरहा है । शरीररूपी घटा फूटकर आत्मारूपी दूध लोकमें सर्वत्र व्याप्त होरहा हो, इस प्रकार वहाँपर आत्मदर्शनमें निर्मलता बढ़ी हुई है । उस ध्यानकी महिमाको भगवंत हो जाने। ____ आयु कर्म तो वृद्ध हो चुका है ! वेदनीय, नाम व गोत्र कम अभीतक जवानीमें हैं । उनको अब प्रयत्नसे दृढ करना चाहिये । इसलिए मन भगवंतने वेदनीय नाम व गोत्रको वृद्ध बनानेका उद्योग किया । विशेष, ध्या, पण्ड के बलसे तीन शत्रुवोंका दमन कर उनको चौथे शत्रुके वशमें देते
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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