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'भरतेश वैभव
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हे सिद्धात्मन् ! आप विश्व विद्याधर हैं, विश्वतो लोचन हैं, विश्वतो मुख हैं, विश्वर्तोऽशु हैं, विश्वेश हैं । इसलिए हे दुष्कर्मतृणलोहिलाइव ! प्रभु निरंजनसिद्ध ! मुझे सन्मति प्रदान कीजिये ।
इति तीर्थेश पूजासंधि:
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जिनमुक्तिभमन संधिः
भगवंत पूजा महोत्सव में रात बीत गई, प्रातःकालमें सूर्योदय होनेपर उपस्थित कनता कार करते हुए वन्दना लिए सन्नद्ध हुई । सूर्यका उदय होनेपर भी कोटि सूर्यचन्द्रके प्रकाशको धारण करनेवाले भगवंत के सामने सूर्य का तेज फोका ही दिख रहा है. एक मामूली दीपक के समान मालूम हो रहा है। एक सुवर्णको थाली के समान दिखल रहा है । घातिक चतुष्टयको नाशकर भगवंत पहिले परंज्योति बन गये हैं । अब चार अघातिया कर्मोंको नष्ट करनेके लिए भगवंत तैयार हुए। घातिया कर्मोकी ६३ प्रकृति तो पहिलेसे खाली होगई हैं। अब घातिया कमको ८५ प्रकृतियोंको नष्ट करनेके लिए भगवंतने तैयारी की । इन ८५ प्रकृतियोंका समूह अब दो भेदसे विभक्त होकर नाशको पाते हैं । भगवंत उनको अपने आत्मप्रदेशसे दूर करते हैं ।
असातावेदनीय, देवगति, औदारिक, वैकियिक, आहारक, तेजस, कार्मण शरीर, पंच बन्धन, पंच संघात, संस्थान छह, अंगोपांग तीन, षद्संहनन, पंच प्रशस्त वर्ण, ( पंच अप्रस्तवर्ण ), गंधद्वय, पंत्र प्रशस्त रस, (पंच प्रशस्त रस ), अष्ट स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विद्वायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, अपर्याप्तक, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, सुस्वर, दुस्वर, अनादेव, अयशःकीर्ति, निर्माण व नीच गोत्र इस प्रकार ७२ प्रकृतियां अयोग केवलो गुणस्थानके द्विचरम समय में आत्मासे अलग होती हैं । इसी प्रकार सातावेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेंद्रिय जाति, मनुष्य गति प्रायोग्यानुपूर्वी, त्रस, बादर, पर्याप्तक, सुभग, आदेय, यशः कोति, तीर्थंकर व उपगोत्र
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