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भरतेश वैभव पर्वतप्राय सामग्रियों से पूजा हो रही थो । अपित पदार्थको देवोंने समुद्र में हाल दिया था । वहाँपर उन फलाक्षतादिकोंको मगरमच्छ तिमिगिल आदि भी पूर्णतः खा नहीं सके । बचे हुए पर्वतप्राय पदार्थ पानोके ऊपर तैर रहे हैं। गुलाबजल, चन्दन आदिके कारणसे सर्व दिशा सुगंधित हो रही थी। इसी कारणसे वायु भी सुगंध हो चला था, तभी वायुका गंधवाहक नाम पड़ गया है।
स्वर्गके देव भरतेशके वैभवकी प्रशंसा करने लगे, रथोत्सव होनेके बाद उस अन्तिम रात्रिको देवेन्द्र ऐरावतपर चढ़कर स्वर्गसे नीचे उतरा। अनध्य रत्नाभरणको धारण कर रत्नमय मुकूटकी प्रभाको दशों दिशाओं में फैलाते हुए एवं रंभामेनकाके नृत्यको देखते हुए देवेन्द्र आ रहा है । देवेंद्र के साथ स्वर्गको वे देवियां आ रही हैं, एवं गा रही हैं, नृत्य कर रही हैं। पूर्वसमुद्र में पड़े हुए पूजा द्रव्य, पर्वतोंके समान उपस्थित रथ व विश्वमें व्याप्त जनताको देखकर देवेन्द्र आश्चर्यचकित हो रहा है। चक्रवर्तीक द्वारा किये हुए पूजनके चिह्न सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहे हैं, भूमि और पवंत सर्व सुगन्धमय हो गये हैं। चक्रवर्तीको अतूलभक्तिके प्रति देवेन्द्र प्रसन्न हो रहा है, शिर डोल रहा है साथमें आश्चर्य कर रहा है । कैलासके पासमें आनेपर देवेन्द्र हाथीसे नीचे उतरा व उन्होंने भगवान् आदिप्रभु व मुनियों को शधी महादेवी के साथ नमस्कार किया । बादमें शची देवीको अलग रख कर स्वयं भरतेश्वरके पास गया व पूजा वैभव से प्रसन्न होकर सार्वभौमको आलिंगन दिया । एवं प्रशंसा की कि सचमुच में आदिप्रमुने लोकमें अनध्यता को प्राप्त किया। साथमें उन्होंने तीन लोकको चकित करनेवाले पुत्ररत्न को प्राप्त किया धन्य है। इस प्रकार भगवान् आदिदेव यात्मयोगमें मग्न हैं। उपस्थित सर्व भक्तगण आनन्दसे पुण्यसंचय कर रहे हैं।
भरतेशके वैभवको इस प्रकरणमें पाठक देख चुके हैं। वे सुविशुद्ध आत्मज्ञानी हैं, तथापि उन्होंने व्यवहारधर्मकी उपेक्षा नहीं की । व्यवहार धर्ममें भी वे इतने चतुर हैं कि उनके पूजावैभवको देखकर विश्वकी प्रजायें चकित हो जायं एवं देवेन्द्र भी आश्चर्य करें। इसलिए वे सदा व्यवहारको न भलते हए ही निश्चयकी आराधना करते थे। उनकी सदा यह भावना रहती थी कि
हे चिदंबरपुरुष ! व्यवहार धर्मका उद्यापन कर सुविशुद्ध निश्चयकी प्राप्तिके लिए हे अमृतमाधव ! मेरे हृदयमें सदा अविचलरूपसे बने रहो!