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भरतेश वैभव
२०७ दामाद, राजपुत्रादिके सम्मान के लिए अपने पुत्रोंको नियत किया। भरतेश्वर ने उनसे कहा कि दान, पूजा स्वहस्तसे होनी चाहिए, इसलिए आप लोग मेरे प्रतिनिधि हों। सबका यथायोग्य सन्मान करो। पुत्रोंने भी आनन्दले इस कार्यको स्वीकार किया । आकाशमें कई विमान लेकर खड़े हुए एवं ऊपरसे सबको वस्त्र - रत्नादि प्रदान करने लगे । दाताके हाथ ऊपर पात्र के हाथ नीचे, यह लोकोक्ति उस समय चरितार्थ हुई । भूमिपर खड़े हुए जो हाथ पसार रहे थे, सबको इन्होंने इच्छित पदार्थ प्रदान किया । समुद्र के जहाजके समान उनका विमान आकाश में सर्वत्र जा रहा है एवं लोगोंको किमिच्छक दानसे तृप्त कर रहा है । अनेक प्रकारके दिव्य वस्त्रोंकी बरसात हो रही है । कल्पवृक्ष स्वयं ऊपरसे उतर रहा हो उस प्रकार वे इच्छित पदार्थोंकी वृष्टि कर रहे हैं। आदिराजके हाथमें जो चितामणि रत्न या वह चितित पदार्थको प्रदान करनेवाला है। फिर किस बात की चिंता है। उस विशाल प्रजा समूहको वे विनोदमात्रसे सन्तुष्ट कर रहे थे। दो पुत्रोंके वश नवनिधियोंको सार्वभौमने किया था। वे तो इच्छित पदार्थको तत्क्षण देते हैं। अतः निमिषमात्र से सबको संतुष्ट किया । fafe आभरणको freलनिधि, वस्त्रको पद्मनिधि, सुवर्ण राशिको शंखनिषि, रत्नराशिको रत्ननिधि, भिन्नरससे युक्त धान्यको पांडुकनिषि जब प्रदान करती है तो उन पुत्रों को अगणित प्रजाओंको तृप्त करनेमें दिक्कत ही क्या है ?
इसके बाद सम्राट्ने गंगादेव, सिंधुदेव, नमि, विनमि आदिका सन्मान करते हुए कहा कि आप और हम पूजक थे । इसलिए पहिले आपलोगों का सन्मान नहीं किया, अब आपका में सन्मान करता हूँ | लीजिये, यह रत्नादिक । तब उन लोगोंने उन आभूषणों को नहीं लिये तो सम्राट्ने कहा कि तब आप लोग ही दीजिये। मैं लेता हूँ | तब उन्होंने भरतेश्वरको भेंट में अनेक अनध्यं वस्त्राभरणादि दिये तो भरतेश्वरने आनन्दके साथ लिये व फिर भरतेश्वरके देनेपर उन्होंने भो लिए। इस प्रकार नमि, विनमि, भानुराज, विमलराज आदिने परस्पर विनोदके साथ सन्मान प्राप्त किया । विशेष क्या ? लोकमें अब दारिद्रय नहीं रहा, दिन महावैभव से पूजा हुई । किमिच्छक दान हुआ। सम्राट्के पूजाव्रतका यह उद्यापन ही है। उस चौदहवें रात्रिको भी रथोत्सव हुआ । चौदह दिनतक रात्रिदिन धर्मका अतुल उद्योत हुआ । करोड़ों वाद्योंको ध्वनि से सर्वत्र आनन्द खाया था । समुद्रके समान ही गंगातटको हालत हो गई थी । एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, चौदह दिनतक जो महादेभवसे