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भरतेश वैभव करती हैं । उनका विश्वास है कि आत्मयोगके रहनेपर किसी भी वैभवको कमी नहीं है । इसीलिए वे सदा इस प्रकारकी भावना करते हैं कि
हे चिदंबरपुरुष ! मेरे पास आपके रहनेपर सम्पत्ति, सुख, सौंदर्य, शृंगार आदि किस बात को कमी हो सकती है, इसलिए आप मेरे अंतरंग सदा बने रहो।
हे सिद्धात्मन् ! अच्युतानन्द ! सद्गुणवृंद, चंडमरीच्यमुतांशु प्रकाश ! सुच्युतकर्म ! गुरुदेव, हे निर्वाच्य! मुझे सन्मति प्रदान कीजिये। इसी भावना का फल है कि उन्हें नित्य नये वैभवको प्राप्ति होती है।
इति पंचेश्वर्य संधिः
तीर्थस्थपूजा सन्धिः भरतेश्वरने पंचसम्पत्तिको प्राप्त करनेके बाद सेनाधिपति मेघेशके पुत्र को बुलवाया। अपने मंत्रो, मित्र व राजाओंके सामने उसका सन्मान किया । एवं आनन्दके साथ कहने लगे कि इस बालकके पिताको जयकुमार, अयोध्यांक इस प्रकारके नाम थे । परन्तु उसको नीरतासे प्रसन्न होकर मैंने उसे वीराग्रणि उपाधिके साथ मेघेश्वर नामाभिधान किया था। अब वह जब दीक्षा लेकर चला गया है तो यही बालक अपने लिए उसके स्थान में है। इसके पिताको बादमें दिये हुए नुतन नामकी जरूरत नहीं । इसे पुरातन नाम ही रहने दो। इसे आजसे अयोध्यांक कहेगे। उस पुत्रसे यह मो कहा कि 'बालक ! तुम्हारी सेवाको देखकर पितासे भी बढ़कर तुम्हारा वेभव बना देंगे । इस समय तुम पिताके भाग्यमें रहो' । साथमें यह भी कहा कि जबतक यह उमरमें न आवे तबतक मेघेश्वर द्वारा नियत वोर ही सेनापतिका कार्य करें । परन्तु मैं विधिपूर्वक सेनापतिका पट्ट इस बालक को बाषता हूँ । इस प्रकार कहते हुए उस बालकका सन्मान किया। पहिले के बनन्तवीर्य नाम आ चला गया । अब उसे लोग अयोध्यांक कहते हैं। उस दिनसे वह बालक आनन्दसे बढ़कर योवनवेदोपर पैर रखने लगा।