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________________ १८६ मरदेश वैभव थी। उसे भी रोकनेका यत्न किया। पुत्रोंका मोह जरूर दुःख उत्पन्न करता है । परन्तु हाथसे निकलनेके बाद अब क्या कर सकते हैं ? अधिक दुःख करना यह विवेकान्यता है । इस प्रकार विचार करते हुए उस दुःख को शांत करनेका यल किया । पहिले एक दफे आँखोंमें आँसू जरूर बाया, फिर चित्तके स्थैर्यसे उसे रोक दिया। हृदयमें शोकाग्नि प्रज्वलित हो रही थी, परन्तु शांतिजलसे उसे बुझाने लगे । भरतेश्वर उस समय विचार करने लगे कि आपत्तिके समय धैर्य, शोकानलके उद्रेकके समय बिवेक व शांति, त्यक्त पदार्थों में हेयता, गृहीत विषयोंमें दृढ़ता रहनी चाहिए, यही श्रेष्ठ मनुष्यका कर्तव्य है । शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है, इस प्रकार भावना करनेवाले भावुकोंको स्वप्न में भी भ्रांतिका उदय नहीं हो सकता, यदि कदाचित् आवे तो उसी समय दूर हो जाती है। आत्मवेदीके पास दुःख जाते ही नहीं हैं. 1 यदि उनके पास दुःख पहुँचा तो आत्माके दर्शन मात्रसे वह दुःख दूर भाग जाता है । आत्मभावनाके सामने अशान क्या टिक सकता है ? क्या गरुड़के सामने सपं टिक सकता है ? हृदय में व्याप्त मोहांधकारको सुझानसूर्यको सामयंसे सम्राट्ने दूर किया एवं एक दो घड़ी के बाद हृदयको सांत्वना देकर फिर बोलने लगे। जिन ! जिन ! जिन सिद्ध ! उनके साहसको गुरु हंसनाथ ही जानते हैं । क्या उनकी यह दीक्षा लेनेको अवस्था है ? यह क्या दोक्षोचित दिन है ? आश्चर्य है । कोमल मूछे अभी बढ़ी भी नहीं हैं। अंगके सर्व अवयव अभी पूर्ण भी नहीं हुए हैं। अभी जवान होने हो लगे हैं । इतनेमें ऐसा हुआ ? इन लोगों ने माताके हाथका भोजन किया है । अभीतक अपनी स्त्रियोंके हायका भोजन नहीं किया है । उमरमें आगये हैं 1 अब शादी करने के विचारमें ही था । इतने में ऐसा हआ। आश्चर्य है अपने भाइयोंक साथ ही खेल कूदमें इन्होंने दिन बिताथा, अपनी बाईयोंके साथ एक रात भी नहीं बिताया । इनका विवाह कर अपनी आँखोंको तृप्त करनेके विचार में था, इतनेमें ऐसा हुआ। आश्चर्य है । सुजयको छोड़कर सुकांत नहीं रहता था। रिपुविजयके साथ हमेशा महाजयकुमार रहता था, इस प्रकार अनेक प्रकारसे अपने पुत्रोंका स्मरण करने लगे वीरंजय व शत्रुवीयं, रतिवीर्य व रविकीति पराक्रममें एकसे एक बढ़कर थे। उनके सदृश कौन है ? इस प्रकार अपने पुत्रोंका गुणस्मरण करने लगे । हायीके सवारीमें राजमार्तड, और घोड़ेकी सबारीमें विक्रमांक, और राजमंदर हाथी घोड़े दोनोंकी सवारीमें श्रेष्ठ था। रथमें रनरप और पपरषकी बराबरी करनेवाले कौन हैं ? पृथ्वीमें मेरे पुत्र सर्वश्रेष्ठ है ऐसा में समा रहा था। परन्तु के
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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