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भरतेश वैभव मूक बनकर जा रहे हैं। बुद्धिमान् लोग समझ गये कि राजकुमार सबके सब दीक्षा लेकर चले गये । वह कैसे ? इनके हाथ में जो खड्ग, कठारी, वीणा, वगैरह हैं, ये ही तो इस बात के लिए साक्षी हैं। नहीं तो ये सेवक तो अपने स्वामियोंको छोड़कर कभी वापस नहीं आ सकते हैं। हमारे सम्राट्के सुपुत्रोंको परबाधा नहीं है अर्थात् शत्रुओंको अस्वशस्त्रादिकसे उनका अपमरण नहीं हो सकता है । क्योंकि वे मोक्षगामी हैं। इनकी मुखमुद्रा ही कह रही है कि कुमारोंने दीक्षा ली है सब लोगोंने इसी बातका निश्चय किया । कोई इस बातमें सम्मत हैं। कोई असम्मत हैं 1 तथापि सबने यह निश्चय किया, जब कि ये सेवक हमसे नहीं कहते हैं तो राजा भरतसे तो जरूर कहेंगे । चलो, हम वहीं पर सुनेंगे। इस प्रकार कहते हुए सर्व नगरवासी उनके पीछे लगे ।
उस समय चक्रवर्ती भरत एकदम बाहरके दीवानस्तानमें बैठे हुए थे। उस समय सेवकोंने पहुँचकर अपने हाथके कठारी, खड्ग, वीणादिकको चक्रवर्ती के सामने रखा व साष्टांग नमस्कार किया ।
घहाँ उपस्थित सभा आश्चर्यचकित हुई । सम्राट् भरत भी आश्चर्य दृष्टिसे देखने लगे। आंसुओंसे भरी हई आँखोंको लेकर वे सेवक उठे। उपस्थित सर्वजन स्तब्ध हुए। हाथ जोड़कर सेवकोंने प्रार्थना की कि स्वामिन् ! श्रीसम्पन्न सौ कुमार दीक्षा लेकर चले गये। __ इस बातको सुनते ही चक्रवर्तीके हृदयमें एकदम आघातसा हो गया । वे अवाक् हुए, हाथका तांबूल नीचे गिर पड़ा। उस दरवार में उपस्थित सद जोर जोरसे रोने लगे। तब सम्राट्ने हाथसे इशारा कर सबको रोक दिया व धरविद पूनः पूछने लगे। "क्या सचमच में गये? अरविंद ! बोलो तो सही !" अरविंदने उत्तरमें निवेदन किया कि स्वामिन् ! हम लोग अपनी आँखोंसे कैलासपर्वतमें दीक्षा लेते हुए देखकर माये । उन्होंने दोक्षा ली, इतनाही नहीं, देवेन्द्र के नमस्कार करनेपर 'धर्मवृद्धिरस्तु' यह आशीवर्वाद भी दिया।
देखते-देखते बच्चोंके दीक्षा लेनेके समाचारको सुनकर सम्राट्का मुख एकदम मलिन हुआ, बोली बन्द हो गई । हृदय एकदम उड़ने लगा दुःख का उद्रेक हो उठा।
नाकके ऊपर उँगलो रखकर, मुकुटको हिलाकर एक दोर्ष निश्वासको छोला । उसी समय आँखोसे आंसू भी उमड़ पड़ा, दुःखका वेग बढ़ने लगा, उसे फ़िर भरतेश्वरने शांत करनेका यत्न किया । तुरन्त मूर्छा आ रही