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________________ १८४ भरतेश वैभव पुण्यशालियोंको ही प्राप्त होता है । भरतेश्वरने अनेक भवोंसे सातिशय पुण्यको अन्दन किया है। मे सदा चिलमन करते हैं कि, "हे चिवम्बरपुरुष! आप आगे पीछे, दाहिने बाएं, बाहर अन्दर, ऊपर नीचे आदि भेद विरहित होकर अमृतस्वरूप है। इसलिए हे सच्चिदानन्द ! मेरे चित्तमें सदा निवास कीजिए। हे सिद्धात्मन् ! आप स्वच्छ प्रकाशक तीर्थस्वरूप हैं, चाँदनीसे निर्मित बिबके समान हो, इसलिए मुझे सदा सन्मति प्रदान कीजिए। इति दोक्षासंघिः कमारवियोग सन्धिः भरतके सौ कुमार दोधित हुए। तदनन्तर उनके सेवक बहुत दुःख के साथ वहसि लौटे । उस समय उनको इतना दुःख हो रहा था कि जैसे किसी व्यापारीको समुद्रमें अपनी मालभरी जहाजके डूबनेसे दुःख होता हो । वह जिस प्रकार जहाजके डूबनेपर दुःखसे अपने ग्रामको लोटता है, उसी प्रकार वे सेवक अत्यन्त दुःखसे अयोध्याकी ओर जा रहे हैं । कैलासपर्वतसे नीचे उतरते ही उनका दुःख उद्रिक्त हो उठा। रास्ते में मिलने वाले अनेक ग्रामवासी उनको पूछ रहे हैं, ये सेवक दुःखभरी आवाजसे रोते-रोते अपने स्वामियोंके वृत्तांतको कह रहे हैं। किसी प्रकार स्वयं रोते हुए सबको सलाते हुए चक्रवर्तीके नगरकी ओर वे सेवक आये। ___ रविकीति राजकुमारका सेवक अरविंद है। उसे ही सबने आगे किया। बाको सब उसके पीछे-पीछे चल रहे हैं । वे दुःखसे चलते समय पतियोंको खोये हुए ब्राह्मणस्त्रियोंके समान मालूम हो रहे थे । कलारहित चेहरा, पटुत्वरहित चाल, प्रवाहित अश्रु, मौनमुद्रासे युक्त मुख व सत्तरीय वस्त्रसे संके हुए मस्तकसे युक्त होकर ये बहुत दुःखके साथ नगरमें प्रवेश कर रहे हैं। उनके बगलमें उन कुमारोंके पुस्तक, आयुध, बीणा वगैरह हैं । नगरमासी. बन मागे बक्कर पूछ रहे हैं कि राजकुमार कहाँ हैं तो ये सेवक
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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