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________________ भरतेश वैभव १६९ उसी प्रकार रक्त मांसके शरीर में रहने पर भी विरक्त जीवात्मा पवित्र है । इसे श्रद्धान् करो | इसलिए जिस प्रकार दूध, मोती कस्तुरी आदि पवित्र हैं उसी प्रकार यह मन ही जिसका शरीर है वह आत्मा भी पवित्र है । इस विषय में विचार करनेकी आवश्यकता है ? अज्ञानीकी दृष्टि में यह आत्मा अपवित्र है । सत्य है ! परन्तु आत्मज्ञानो सुज्ञानीकी दृष्टिमें वह पवित्र है । अज्ञान भावनासे अज्ञान होता है, सुज्ञानसे सुज्ञान होता है । जबतक इस आत्माको बद्ध के भवबद्ध ही है । जबसे वह इसे शुद्ध के मोक्षमार्गका पथिक है ? रूपमें देखता है तबतक वह आत्मा रूपमें देखने लगता है, तबसे वह 'शरीर ही में हूँ' ऐसा अथवा शरीरको ही आत्मा समझनेवाला बहिरात्मा है | आत्मा और शरीर को भिन्न समझनेवाला अन्तरात्मा है | शरीररहित आत्मा परमात्मा है। आत्माका दर्शन जिस समय होता उस समय सभी परमात्मा हैं | बहिरात्मा बद्ध है, परमात्मा शुद्ध है, अंतरात्मा अपने हित में लगा हुआ है। वह बाह्यचितामें जब रहता है तब बद्ध है। अपने आत्मचितवन में जब मग्न होता है तब शुद्ध है । अपने आत्माको अल्प समझनेवाला स्वयं अन है । अपने आत्माको श्रेष्ठ समझकर आदर करनेवाला अल्प नहीं है, वह मेरे समान लोकपूजित हैं । इसे मेरी आज्ञा समझकर श्रद्धान् करो । दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके भेदसे चार विकल्प आचारका व्यवहारसे होनेपर भी निश्चयसे परमात्मयोग में हो वे सब अंतर्भूत होते हैं । यह निश्चय मोक्षमार्ग है। मूल गुण, उत्तरगुण आदिका विकल्प सभी व्यवहार हैं। मूलारण तो अनंतज्ञानादिक आठ हैं और मेरे स्वरूप में है । इस प्रकार समझकर आत्मामें आरान करना यह निश्चय है । हे भव्य ! जो व्यक्ति सबै विकल्पों को छोड़कर ध्यान में मग्न होते हुए मुझे देखता है वही देववंदना है, अनेक व्रतभावना है। वायुवेगसे जानेवाले इस चित्त को आत्ममार्ग में स्थिर करना यही तपश्चर्या है । उग्र सपचर्या है । श्रेष्ठ तपश्चर्याा है । इसे विश्वास करो । अध्यात्मको जानकर चित्तसाध्यको करते हुए जो अपने आत्मामें ठहर जाता है, वही स्वाध्याय है, वही पंचाचार है । वहो महाध्यान है । आप है, तप है ।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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