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भरतेश वैभव सम्पदाकी प्राप्ति होना है, परन्तु अभेदभक्तिका फल तो मुक्तिसाम्राज्य को प्राप्त करना है । कभी भिन्न भक्तिसे स्वर्गमें भी पहुंचे तो पुनः स्वर्ग सुखको अनुभव कर वह दूसरे जन्मसे मुक्तिको जायगा। यह मेरी आज्ञा है, इसे श्रवान करो। भेदरलत्रय, व्यवहार, रत्नत्रय, शुभयोग, भेदभक्ति इन सबका अर्थ एक ही है | अभेद रत्नत्रय, निश्चय शुद्धोपयोग, अभेदभक्ति इन सबका एक अर्थ है।
ध्यानके अभ्यास कालमें चित्तके चांचल्यको दूर करनेके लिए शुभ योगका आचरण करना आवश्यक है, बादमें जब चित्तक्षोभ दूर होनेके बाद मात्मामें स्थिर हो जाना उसे शुद्धोपयोग कहते हैं। __ चैतन्यरहित शिला आदिमें मेरा उद्योत करें तो सामान्य भक्ति है, चैतन्यसहित आत्मामें रखकर मेरो जो प्रतिष्ठा की जाती है वह विशेष भक्ति है। - रविकीर्तिकुमारने बीचमें ही एक प्रश्न किया। भगवान् ! पाषाण अचेतन स्वरूप है । यह सत्य है । तथापि उसमें मलादिक दूषण नहीं है । परन्तु जो अनेक मलदूषणोंसे युक्त है. ऐसे देहमें आपको स्थापन करना वह भूषण कैसे हो सकता है ?
उत्तरमें भगवंतने फरमाया कि भव्य ! यह देह अपवित्र जरूर है। परन्तु उस देहमें हमारो कल्पना करने की जरूरत नहीं है । देहमें जो शुद्ध आत्मा है उसमें हमारे रूप की कल्पना करो ! समझे ?
पुनश्च रविकोतिने कहा कि स्वामिन् ! यह समझ गया । अन्दर वह आत्मा परिशद्ध है, यह सत्य है । तथापि मांसास्थि, चर्मरक्त व मलसे पूर्ण अपवित्र देहके संसगंदोषके बिना आपकी स्थापना उसमें हम कैसे कर सकते हैं ? कृपया समझा कर कहिये । , प्रभुने कहा कि भव्य ! इतलो जल्दी भूल गये ? इससे पहिले हो कहा
था कि गायके स्तनभागमें स्थित दूधके समान शरीरमें स्थित आत्मा परिशुद्ध है । शरीरके अन्दर रहनेपर भो यह आत्मा शरीरको स्पर्श न करके रहता है। इसलिए वह पवित्र है। उसी स्थानमें हमारी स्थापना करो । गोके गर्भ में स्थित गोरोचन लोकमें पावन है न? जीव शरीर में रहा तो क्या हुआ ? वह निमलस्वरूपी है, उसे प्रतिनित्य देखनेका यस्न करो।
मगकी नाभिमें रहने मात्रसे क्या? कस्तुरो तो लोक में महासेव्य पदार्थ माना जाता है । इसी प्रकार इस चर्मास्थिमय शरीरमें रहनेपर मो बात्मा स्वयं पवित्र है । सीपमें रहनेपर भी मोतो जिस प्रकार पवित्र है,