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भरतेश वैभव
१६७ यहाँ समवसरणमें हम रहते हैं, सिद्ध परमेष्ठी लोकाग्रभागमें रहते हैं, इत्यादि प्रकारसे अपनी आत्मासे हमें व सिद्ध परमेष्ठियोंको अलग रखकर विचार करना, पूजा करना यह भेदभक्ति है ।
हमें व सिद्ध परमेष्ठियोंको इधर-उधर न रखकर अपनी आत्मामें हो रखकर भावपूजा करना वह परब्रह्माकी अभेदभक्ति है। हमें अलग रखकर देखना वह भेदभक्ति है । भक्तिके साथ अपनी आत्मामें हो अभिन्न रूपसे हमें देखना वह कौको ध्वंस करने में समर्थे अभेदभक्ति है । लेप, कांसा, पीतल आदिके द्वारा हमारी मृति बनाकर उपासना करना बह भेदभक्ति है । आत्मामें विराजमान कर हमें देखना यह हमारे पसंद की अभेदभक्ति है।
सिद्ध व अरिहंतके समान ही मेरी आत्मा भी परिशुद्ध है, इस प्रकार अपनी आस्माको देखना वही सिदभक्ति है । वही हमारी भक्ति है । तभो सिद्ध वहम वहां निवास करते हैं।
भेदभक्तिको अनेक सज्जन करते हैं। परन्तु अभेदमक्तिको नहीं कर सकते हैं । भेदभक्तिको पहिले अभ्यास कर बादमें अभेदभक्तिका अवलंबन करना चाहि।
भेदभक्तिको सभी अभव्य भी कर सकते हैं, परन्तु अभेदभक्ति तो उनके लिए असाध्य है। मोक्षसाम्राज्य को मिला देनेवाली वह भक्ति अभागियों को क्योंकर प्राप्त हो सकती है।
स्वयं भक्ति न कर सके तो क्या हुआ? जो भक्ति करते हैं उनके प्रति मनसे प्रसन्न होवे एवं अनुमोदना देखें तो कल वह भक्ति प्राप्त हो सकती है। परन्तु उनको भक्ति सिद्ध होती नहीं । और दूसरोंकी भक्तिको देखकर प्रसन्न भी नहीं होते हैं । इसलिए वे मुक्तिसे दूर रहते हैं ।
भिन्नतासे युक्त हो भेदभक्ति है, वह आत्माको उस भक्तिसे भिन्न करता है । और भेदरहित भक्ति है वह अभेदभक्ति है, वह आत्मासे अभिन्न ही है।
इसके लिए एक दृष्टांत कहेंगे सुनो ! गुरुके घरमें जाकर उनकी पूजा करना यह गुरुभक्ति है । परन्तु गुरुको अपने घरमें बुलाकर पूजा करना वह विशिष्ट गुरुभक्ति है।
भक्तिमें श्रेष्ठ अभेदभक्ति है । सर्व सम्पत्तियों में श्रेष्ठ मुक्ति सम्पत्ति है। मुक्ति के योग्य भक्ति करना आवश्यक है, यही युक्तिसहित भक्ति है। इसे अच्छी तरह जानना । भिन्नक्ति अर्थात् भेदभक्तिका फल स्वर्ग