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भरतेश वैभव पारेके समान इधर-उधर जानेवाले चित्तको लाकर आत्मामें संधान वहीं द्वादशांग शास्त्राध्ययन है । वही चतुर्दशपूर्वाभ्यास है ।
सामान्यभावनासे चित्तको रोककर आत्मगम्य करना वहीं सम्यक्त्व है, सम्यग्ज्ञान है, सम्यक्चारित्र है और माम्यतप है । __ भिन्न-भिन्न स्थानमें पलायन करनेवाले चित्तको आत्मामें अभिन्न रूपसे लगा देना वही मेरी मुद्रा है, वही तीर्थवंदना है, और वही मेरी उपासना है, इसे श्रदान करो।
दुर्जयनित्तको जोतकर, साई निलमों को लिा .रते हुए जो स्वयंको देखता है वहीं निर्जरा है, संवर है, वही परमात्माकी उजित मुक्ति है।
दाक्षिण्य (लिहाज ) छोड़कर चित्तको दबाते हुए आत्मसाक्षीसे अंदर देखना वह मोक्षपद्धति है, वही मोक्षसम्पत्ति है । विशेष क्या? वहीं मोक्ष है, इसे विश्वास करो, विश्वास करो।
हे रविकोति ! यह आत्मचितवन परमरहस्यपूर्ण है, एवं मुझे प्राप्त करने के लिए सन्निकट मार्ग है । जो इस दुष्टमानको जीतते हैं उन शिष्टों को इसका अनुभव हो सकता है। 'प्रभो ! एक शंका है', बोचमें ही रविकीर्तिकुमारने कहा।
जब इस परमात्माको इतनो अलौकिक सामर्थ्य है फिर वह इस संकु. चित शरीरमें फंसकर क्यों रहता है ? जन्म और मरणके संकटोको क्यों अनुभव करता है, श्रेष्ठ मुक्ति में क्यों नहीं रहता है ? ___ भगवंतने उत्तर दिया कि भव्य ! वह अतुलसामर्थ्यसे युक्त हैं, यह सत्य है, तथापि अपनी सामर्थ्यको न जानकर बिगड़ गया रागद्वेषको छोड़कर अपने आपको देखे तो यह बहुत सुखका अनुभव करता है । . वृक्षको जलानेकी सामर्थ्य अग्निमें है, परन्तु वह भाग वृक्षमें ही छिपी रहसी है । जब दो वृक्षोंका परस्पर संघर्षण होता है तब वही अग्नि उसी वृक्षको जला देती है। ठीक इसी प्रकार कर्मको जलानेकी सामर्थ्य आत्मा में है परन्तु वह कर्मके अन्दर हो छिपा हुआ है । कर्मको जानकर स्वतः अपनेको देखें तो उसी कर्मको वह जला देता है।
आत्मामें अनन्तशक्ति है, परन्तु वह शक्तिरूपमें ही विद्यमान है। उसे व्यक्तिके रूपमें लानेकी आवश्यकता है | शक्तिको व्यक्तिके रूप में लानेके लिए विरक्तिसे युक्त ध्यान ही समर्थ है ।
अंकुर तो बीजके अन्दर मौजूद है । भूमिका स्पर्श न होनेपर वह वृक्ष