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रमेश देव
४७ हैं। सामने की सर्व परिस्थितियोंको जानना चाहिये और अपनेको भी जानना चाहिये । यही कुशलता है ।
आत्मज्ञानीको तीन आँखें होती है अथवा जिसको तीन नेत्र हैं वही इम लोकमें विजयी होता है। दो आँखोंसे तो वह लोकको देख सकता हैं, परंतु आत्माको उन आँखोंसे नहीं देख सकता है। उसके लिये तीसरे ज्ञानरूपी नेत्रकी आवश्यकता है। उस ज्ञानरूपी नेत्रसे वह आत्माको देखता है। इसलिए त्रिनेत्रीको ही मुखकी सिद्धि होती है मवको नहीं।
वह विवेकी तरुणियोंके बीचमें रहता है । अथवा आत्मरतिरूपी क्षीरसमुद्र में भी रहता है। अनेक विषयवासनाओंके बीच में रहनेपर भी आत्मानुभवकी प्राप्तिके लिये उद्योग करना चाहिए । उद्योगी पुरुष पुंगवोंको ही सुख की सिद्धि हो सकती है । भला आलसियोंको वह क्यों मिलेगी ? एक बार तो वह नरेन्द्र उत्तम स्त्रियोंसे वार्तालाप करता है, तो पश्चात् सरस्वती ( शास्त्र ) से वार्तालाप करता है। परसतियोंके प्रति मौन धारण करके मुक्तिरूपी सतीके प्रति ध्यान रखती है। इस प्रकार वह विवेकी चतुर्मुख रहता है । जो कमलनयनियोंके चित्त व अपने चित्तका अन्तर समझने में समर्थ है, उसीको आत्मसिद्ध है, उसे अहं कहते हैं। जिसमें इस प्रकारकी शक्ति है वही श्रीमंत है, वही प्रभु है। ऐसे श्रीमंतोंकी ही सुखकी सिद्धि होती है, दीनोंको नहीं।
जो लोग शरीर सम्बन्धी सुखमें पागल होकर आत्मसूखके स्वादको नहीं लेते हैं और इंद्रियोंके सुखको ही भोगते हैं, सचमुचमें थे बड़ी भारी भूल करते हैं। उनकी गति ठीक वैसी ही है जैसे कोई पागल भुसेको बचाकर रखता हो और चावलको फेंक रहा हो । यह अज्ञानी भी सार आत्मसुखको छोड़कर असार इन्द्रिय सुखको ग्रहण करता है ।
लोकमें असमर्थ मनुष्य गुणोंकी प्राप्तिके लिये बहुत प्रयत्न करता रहता है । अमुक गुण चाहिये, धन चाहिये, शक्ति चाहिये इस प्रकार लोग रात-दिन खटपट किया करते हैं। परन्तु उनको वे पदार्थ प्राप्त नहीं होते । किन्तु आत्मयोगको धारण करनेवाले योगियोंके पाससे यदि बे गुण धक्का देनेपर भी नहीं जाते। प्रत्युत वे महागुण उस व्यक्तिके शरणमें स्वयमेव आश्रय पानेको आते हैं।
जिसके हाथमें पारस या चिन्तामणिरत्न है उसे सम्पत्तियोंको प्राप्त करने में क्या कठिनता होगी? इसी प्रकार जिसके हाथमें आत्मानुभव