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________________ भरतेश वैभव जाता है उसी प्रकार इस संचरणशील मननो ही बातोपर माननी , बंध नहीं, फिर अपने आप संवर और निर्जरा होती है। प्राणावादपूर्व नामके महाशास्त्रको पठनकर कोई दशवायुओंको वशमें कर लेते हैं, एवं उससे हरिणके समान चंचलवेगले युक्त चित्तको रोककर आत्मामें लगा देते हैं । और कोई इस प्राणायामके अभ्यासके बिना ही इस चंचलमनको स्थिर कर आत्मामें लगाते हैं एवं आस्मानुभव करते हैं। इस प्रकार मनका अनुभव दो प्रकारसे है। प्राणियोंके चित्तका दो विकल्प है, एक मृदुचित्त और दूसरा कठिन चित्त | मचित्तके लिए प्राणायामयोगकी आवश्यकता नहीं है। और कठिनचित्तको वायुयोगसे मृदु बनाकर आस्मामें लगाना चाहिए। हे रविकीति ! यह ब्रह्मयोग है । एवं ब्रह्मयोगका मूल है। नाभिसे लेकर उस वायुको जिह्वाके ऊपर स्थित ब्रह्मरंध्रको चढ़ावे तो उस परब्रह्मका दर्शन होता है। उस प्राणायाममें कला, नाद, बिद् इत्यादि अनेक विधान हैं । उनको उक्त विषयक शास्त्रोंसे जान लेना। यहाँपर हम इतना हो कहते हैं कि अनेक उपायोंसे मनको रोककर आत्माम लगानेपर यात्मसिद्धि होती है। ध्यानके बिना कर्मको निर्जरा नहीं हो सकती है, सहप ही प्रवन उठता है कि वह ध्यान क्या है ? चित्तके अनेक विकल्पोंको छोड़कर इस मनका आत्मामें संधान होना उसे ध्यान कहते हैं। बोल, चाल दृष्टि शरीरकी चेष्टा आदिको रोकते हुए लेपकी पुतली के समान निश्चल बैठकर इस चंचल मनको आत्मविचारमें लगाना उसे सर्वजन ध्यान कहते हैं। अनेक प्रकारसे तत्वचितवन करना वह स्वाध्याय है। एक ही विचार में उसे मनको लगाना यह ध्यान है । उस ध्यान में भी धर्म व शुक्लके भेदसे दो विकल्प हैं। __ आँखमींचकर मनकी एकाग्रतासे ध्यान किया जाता है जब आत्माकी कांति दीखती है और अदृश्य होती है एवं अल्पसुखका अनुभव कराता है उसे धन्यध्यान कहते हैं। कभी एकदम देहभरकर प्रकाश दीखता है एवं तदनंतर हृदय व मुख. में दिखता है, इस प्रकार कुछ अधिक प्रकाशको लिए हुए यह परखाको प्राप्त करने के लिए बीजस्प यह मर्मयोग है।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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