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भरतेश वैभव
जैसे जैसे ध्यानका अभ्यास बढ़ता है वह प्रकाश दिन प्रतिदिन बढ़ता ही रहता है एवं कर्मरज आत्मप्रदेशसे निकल जाते हैं । मनमें सुज्ञानको मात्रा बढ़ती है । एवं सुखके अनुभव में भी वृद्धि होती है ।
उस सुखको वह लोकके सामने बोलकर बतला नहीं सकता । केवल उसको स्वतः अनुभव कर खूब तृप्त हो जाता है। बोलचालको इस जगको सर्वचेष्टायें उसे जड़ मालूम होती हैं।
उसे सर्वलोक पागलके समान मालूम होता है वह लोगों को दृष्टिमें पागल के समान मालूम देता है । वह आत्मयोगो कभी मोनसे रहता है, फिर कभी बोलकर मूकके समान हो जाता है, उसकी वृत्तिविचित्र है ।
एकांत की अपेक्षा करनेवाली वृत्तियोंकी वह अपेक्षा नहीं करता है. परन्तु वह एकांगी रहता है। एक बार लोकके अग्रभाग में पहुँचता है अर्थात् सिद्धलोक व सिद्धात्माओंका विचार करता है, फिर अपने आत्मलोकमें संचरण करता है ।
अपनी आत्माको स्वतः आप देखकर अपने सुखका अनुभव करता है एवं उससे उत्पन्न हर्षसे फूलता है, हँसता है, दूसरोंको नहीं कहता है । यह धर्मयोगको साधन करनेवाले के लक्षण हैं ।
वह धर्मयोग यदि साध्य हुआ तो भव्योंके हितके लिए कुछ उपदेश देता है, यदि भव्योंने उपदेशको आनन्दसे सुना तो उसे कोई आनन्द नहीं है, और नहीं सुना तो कोई दुःख भी उसे नहीं है।
स्वतः जो कुछ भी अनुभव करता है कभी उस मिष्टसुखको कृतिके रूपमें लोकके सामने रखता है । एवं प्रत्यक्ष जो कुछ भी देखा उसे कभी उपदेश में बोलकर बता देता है। इस प्रकार कोई-कोई आत्म कल्याणके साथ लोकोपकार भी करते हैं, परन्तु कोई इस झगड़े में नहीं पड़ते हैं । उस धर्मयोगके बलसे अपने कर्मके संदर और निर्जरा करते हुए आगे बढ़ते हैं, हे भव्य ! यह धर्म ध्यान है ।
दशविध धर्मके भेदोंसे एवं चार प्रकारके (आज्ञाविचप, अराय-विचय विपाकविचय संस्थानविचय) ध्यानके भेदोंसे उस ध्यानका वर्णन किया जाता है, वह सब व्यवहार धर्म है। इस चित्तको आत्मामें लगा देना वह निश्चय - उत्तम धर्म योग है |
इस चर्मदृष्टिको बन्दकर आत्मसूर्य को देखने पर सूर्य मेघ मंडलके अन्दर उज्ज्वल रूपसे जिस प्रकार दीखता है उस प्रकार दीखता है एवं साथ में सुज्ञान व सुखका विशेष अनुभव करता है वह शुक्लयोग है 1