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________________ = १६० भरतेश वैभव जो रत्नत्रय होता है उसे भेद रत्नत्रय कहते हैं, अभेदरूपसे अपने ही श्रद्धान, शान व ध्यानका अवलम्बन पह अभिन्न रत्नत्रय अर्थात् अभेदरत्नत्रय है । पहिले व्यवहाररत्नत्रयके अवलम्बनकी आवश्यकता है । व्यवहार रत्नत्रयको धारणकर व्यवहारमार्गके आचरण में निष्णात होनेपर निश्चयार्थको साधन करना चाहिये, जिससे निश्चलसिद्धि होती है। हे रविकीर्ति ! व्यवहारमार्ग से निश्चय मार्गको सिद्धि कर लेनी चाहिये और उस विशुद्ध निश्चयमार्ग से आत्मसिद्धिको साथ लेनी चाहिये, यही आत्मकल्याणका राजमार्ग है । यह चित्त हवाके समान अत्यन्त चंचल है, दुनिया में सर्वत्र बहु विहार करता है। ऐसे वित्तको निरोध कर तत्वविचार में लगा लेना चाहिये, फिर उन तत्वोंसे फिराकर अपने आत्माकी ओर लगाना चाहिये । मनको यथेच्छ संचार करने दिया जाय तो वह चाहे जिधर चला जाता है। यदि रोकें तो रुक भी जाता है। इसलिए ऐसे चंचल मनको सत्यविचारमें लगाना एवं अपने में स्थिर करना यह विवेकियोंका कर्तव्य है । रविकीर्ति ! लोक में घोरतपश्चर्या करनेसे क्या प्रयोजन ? अनेक शास्त्रों के पठनसे क्या मतलब ? इस चपलचित्तको जबतक स्थिर नहीं करते हैं तबतक उस तपश्चर्या व शास्त्रपठनका कोई प्रयोजन नहीं है। जो व्यक्ति उस चंचल चित्तको रोककर अपने आत्मविचार में लगाता है वही वास्तव में तपस्वी है एवं शास्त्र के ज्ञाता हैं । मनके विकल्प, इंद्रियोंके विषय कषायोंको उत्पन्न करते हैं एवं स्वयं अलग होने हैं, इससे योगोंके निमित्तसे आत्मप्रदेशका परिस्पंद होता है एवं अव बंध होते हैं, इसलिए मन ही कर्मो के लिए घर है । इस मनको आत्मामें न लगाकर परपदार्थों में लगावें तो उससे कर्मबंध होता है, वह जिस प्रकार एक एक पदार्थका विचार करता है उसी प्रकार नवीन नवीन कर्मोंका बंध होता है । उसे रोककर आत्मामें लगाने पर कर्मकी एकदम निर्जरा होती है । इस दुष्टमनके स्वेच्छविहार से कर्मबंध होता है यह आत्मा आठ कर्मों के जाल में फँसता है। उससे संसारकी वृद्धि होती है। इसलिए उस दुष्ट मनको ही जीतना चाहिए । चतुरंगके खेल में राजाको ही बांधने पर जिस प्रकार खेल खतम हो
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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