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________________ भरतेश वैभव भरतेश्वर सदा इस प्रकार भावना करते थे कि हे परमात्मन् ! आप विमललोचन हैं, विमलाकार हैं । विमलांग हैं। विमलपुरुष हैं। विमलात्मा हैं। इसलिए लोकविमल हैं। अतः निर्मल मेरे अंतःकरणमें सदा बने रहो । १५९ हे सिद्धात्मन् ! आप त्रिभुवनसार हैं। दिव्यध्वनिसार और अभिनव तत्वार्थसार हैं। विभवकसार हैं, विद्यासार हैं, इसलिए हे निरंजनसिद्ध ! मुझे सन्मति प्रदान कीजिये ! इति दिव्यध्वनिधिः 10011 मोक्षमार्ग सन्धिः भगवान् आदिप्रभूने उन कुमारोंको पहिले विश्व के समस्त तत्वोंको समझाकर बादमें आत्मसिद्धिका परिज्ञान कराया। क्यों कि आत्मज्ञान ही लोकमें सार है । हे भव्य ! परमात्मसिद्धिकी कलाको सुनो ! हमने जो अभीतक तत्वों का विवेचन किया है, उन तत्वोंके प्रति यथार्थश्रद्धान करते हुए जो उनको जानते हैं व यथार्थसंयम को धारण करते हैं, उनको आत्मसिद्धि होती है । श्रद्धान, ज्ञान व चारित्रको रत्नत्रय के नामसे भी कहते हैं । इन रत्रयोंको धारण करनेसे अवश्य आत्मकल्याण होता है उन रत्नत्रयों में भेद और अभेद इस प्रकार दो भेद हैं । कारण कार्य में विभिन्नता होनेसे ये दो भेद हो गये हैं । उन्हींको व्यवहाररत्नत्रय और निश्चय - रत्नत्रयके नामसे भी कहते हैं । नवपदार्थ, सप्तत्त्व, पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य, इनको भिन्न-भिन्न रूप से जानकर अच्छी तरह श्रद्धान करना एवं व्रतोंको विकल्परूपसे आचरण करना इसे भेदरत्नत्रय अथवा व्यवहार रत्नत्रय कहते हैं । परपदार्थों की चिन्ताको छोड़कर अपने आत्माका ही श्रद्धान एवं उसी के स्वरूपका ज्ञान व मनको उसीमें मग्न करना यह अभेदरत्नत्रय है एवं इसे निश्चयरत्नत्रय भी कहते हैं। आत्मासे भिन्न पदार्थोके अवलम्बनसे
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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