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भरतेश वैभव हेय और उपाय इस प्रकार दो विभाग हैं । अजोव, पुण्यात्रब, पापासव पण्यबंध, पापबंध, इनको हेय समझकर छोड़ना चाहिए । निर्जरा, संवर, जीव और मोक्ष इन तत्वोंको उपादेय समझकर ग्रहण करना चाहिए।
जोवास्तिकाय, जीवतत्व, जोवपदार्थ इन सबका एकार्थ है। इसे आत्मकल्याणके लिए महण करना चाहिए । बाको सर्वपदार्थ हेय हैं। आगमको जाननेका यही फल है । जीवद्रव्यको उपादेय समझकर अन्य द्रव्योंका परित्याग करना हो लोकमें सार है । जिस प्रकार सोनेकी सुनिको खोदकर, मिट्टीको राशि कर एवं शोधन कर बादमें उसमेंसे सोनेको लिवा जाता है, बाकी सर्वपदार्थोंको छोड़ दिया जाता है, उसी प्रकार सततत्वों को जानकर उनमेंसे छह तत्वोंको छोड़कर जोवतस्वका ग्रहण करना ही बुद्धिमानोंका कर्तव्य है। ___ आस्रव व बंधसे इस आस्माको संसारको वृद्धि होती है, आस्रव व बंध को छोड़कर संवर व निर्जराके आश्रयमें जानेसे मक्ति होती है। क्षमा हो क्रोधका शत्रु है निस्संगभावना हो मोहका बैरी है, परमवैराग्य हो ममकारका शंभु है इन तीनोंको सयमो अहण करें तो उसे बंध क्यों कर हो सकता है ? पहिले पापकर्मको छोड़कर पुण्यमें ठहरना चाहिए अर्थात् अशुभको छोड़कर शुभमें ठहरना चाहिए । तदनन्तर उसे भी परित्याग कर सुध्यानमें मग्न होना चाहिए। क्योंकि ध्यानसे हो मुक्ति होती है । __ हे रविकीर्ति ! इस प्रकार घड्दव्य, पचास्तिकाय, सप्ततत्व, नवपदार्थोका निरूपण किया। अब आत्मसिद्धि किस प्रकार होती है, उसका कथन किया जायगा । इस प्रकार भगवान् आदिप्रभुने अपने मृदु-मधुरगम्भीर दिव्यनिनादके द्वारा तत्वोंका निरूपण किया एवं आगे आत्मसिद्धिके निरूपणके लिए प्रारम्भ किया। उपस्थित भव्यगण बहुत आतुरता के साथ उसे सुन रहे हैं।
भरतनदन सचमुच में धन्य हैं, जिन्होंने तीर्थंकर केवलीके पादमूलमें पहुंचकर ऐसे पुण्यमय, लोककल्याणकारी उपदेशको सुननेके भाग्यको पाया है। तत्वश्रयणमें तन्मयता, बीच में तर्कणा पूर्ण सरलशंकायें आदि करनेकी कुशलता एवं सबसे अधिक आत्मकल्याण कर लेनेकी उत्कट संलग्नताको देखनेपर उनके सातिशय महत्वपर आश्चर्य होता है । ऐसे सत्पुत्रोंको पानेवाले भरतेश्वर भी असदश पुण्यशाली हैं। जिन्होंने पूर्व जन्म में उच्च भावनाओंके द्वारा पुण्योपार्जन किया है जिससे उन्हें ऐसे लोकविजयी पुत्ररत्त प्राप्त हुए।