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________________ १५४ भरतेश वंभव श्रीमंतका खजाना कितना ही बड़ा क्यों न हो, आयको रोकनेपर व्ययके चालू रहनेपर एक दिन यह खाली हुए बिना नहीं रह सकता है। इसी प्रकार आनेवाले कर्मोको रोकनेपर पूर्वसंचित कर्म निकल जाए तो यह एक दिन अवश्य कर्मरहित होता है । इस पह करतया कथन है, पूर्वसंचित कर्मो को थोड़े-थोड़े अंशमें बाहर निकालना उसे निर्जरा कहते हैं। नवोन आनेवाले कर्मों को रोकना संवर है, पुराने कर्मोको आत्मप्रदेश से निकालना उसे निर्जस कहते हैं, संबर और निर्जरामें इतना हो अंतर है। परमाणुमात्र भी स्नेह और कोपका धारण न कर एकाकी होकर परमहंस परमात्माको देखनेपर यह कर्म निर्जरित हो जाता है, इसमें आश्चर्यको क्या बात है। उपवास आदि संयमको धारण कर मनमें उपशांति को प्राप्त करते हुए शुद्धात्माका निरीक्षण करें तो यह कर्म शपित होता है। निर्जराके दो भेद हैं, एक सविपाक निर्जरा और दूसरी मविपाक निर्जरा । सविपाकनिर्जरा तो सर्व प्राणियों में होती है। परन्तु अविपाक निर्जरा मुनियोंमें हो होती है, सबको नहीं है। ____ अपने आप उदयमें आकर जो प्रतिनित्य कर्म निकल जाते हैं उसे सविपाकनिर्जरा कहते हैं। अनेक प्रकारके तपश्चर्याक द्वारा शरीरको कष्ट देकर कर्म उदयमें लाया जाता है, एवं वह कर्म निर्जरित होता है उसे कृतपाक या मविपाकनिर्जरा कहत हैं। एक फल तो ऐसा है जो अपने आप पककर वृक्षसे गिर पड़ता है और एक ऐसा है जिसे अनेक उपायोंसे पकाकर गिराते हैं। दोनों फल पक जाते हैं, इसी प्रकार कर्मों के भी फल देकर खिरनेके दो प्रकार हैं। संवरको सतत् साथ लेकर जो निर्जरा होती है, वह उस आत्माको मोक्षमें ले जाती है। और उस संबरको छोड़कर जो निर्जरा होती है वह इस आत्माको संसारबंधन में डालती है और भवरूपो समुद्र में भ्रमण कराती है। इस आत्माको ध्यान में मग्न होकर प्रतिनित्य देखना चाहिए। ध्यान जिस समय करना न बने अर्थात् चित्तचंचल हो जाय उस समय पहले जो ध्यानके समय जिस आत्माका दर्शन किया है उसीका स्मरण करते हुए. मौनसे रहना चाहिए।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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