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भरतेश वैभव कर्मोंका बंध होता है। सुख-दुःख के समय समताभायसे आत्मविचार करनेपर बन्ध नहीं होता है। पहिलेके कर्म जर्जरित होकर चले जाते हैं और नवीन कर्म आकर बंधको प्राप्त होते हैं इसी कर्मके निमित्तसे शरीर का सम्बन्ध होता है। उसी कर्मके कारणसे पुराने शरीरको छोड़कर नवीन शरीरको ग्रहण करता है और इसी प्रकार कर्मके निमित्तसे शरीर का परिवर्तन करते हुए आत्मा कमसे मग्न रहता है।
जिस प्रकार एक तालाबमें एक ओरसे पानी आवे और एक ओरसे जावे तो जिस प्रकार हमेशा वह पानी से भरा हो रहता है उसी प्रकार कमरज जीवप्रदेशमें आते हैं, जाते हैं और बने रहते हैं।
नवोन कम पहिले द्रव्यकर्मके साथ संबंधित होते हैं । और वह द्रव्यकर्मके साथ मिल जाता है और भावकर्मका आत्मप्रदेश में बंध होता है। इस प्रकार बंधपरम्परा है। नवीनकर्मका पूर्वकर्मके साथ बंध हैं. पूर्व कर्मका भावकर्मके साथ बंध है। भावकमका जीवके साथ बंध है । इस प्रकार बंधके तीन भेद हैं। वैसे तो बंधका प्रकृति, स्थिति, प्रदेश व अन्नुभागके भेदसे चार भेद हैं । परन्तु विशेष वर्णनसे क्या उपयोग? बंधतत्व के इस कथनको संक्षेपसे इतना हो समझो । आग संवरतत्वका निरूपण करेंगे।
आनेवाले कर्मों के तीन वारको तोन गुप्तियोंके द्वारा बंद करके अपनी आत्माको स्वयं देखना यह संवर है।।
मोनको धारण कर, बचन व कायकी चेष्टाको बंदकर, आँख भींचकर, मनको आत्मामें लगाना वही संवर है । उसे ही त्रिगुप्ति कहते हैं । जहाज के छिद्रको जिस प्रकार बंद करनेपर उसमें पानी अन्दर नहीं आता है उसी प्रकार तीप्रयोगसे जानेवाले योगोंको मुद्रित करनेपर कमं अन्दर प्रविष्ट नहीं होता है। अर्थात् गुप्तिके होनेपर संवर होता है। तीन गुप्तियों में चित्तगुप्तिको प्राप्ति होना बहुत ही कष्टसाध्य है । जो संसार को समस्त व्याप्तियोंको छोड़कर शात्मामें मन लगाते हैं उन्होंको इस गुप्तिकी सिद्धि होती है।
बंध व निर्जरा तो इस आत्माको प्रतिसमय प्राप्त होते रहते हैं। परन्तु बंधर्वरी संवरकी प्राप्ति होना बहुत ही कठिन है। निजात्मसम्पत्ति को प्राप्ति के लिए वह अनन्यबंधु हैं । पहिले बद्धकर्म तो निर्जराके द्वारा निकल जाते हैं। नवोन आनेवाले कमों को रोकनेपर आत्माको सिद्धि अपने आप होतो है । हे रविकीति ! इसमें आश्चर्यकी क्या बात है?