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________________ १५२ भरतेश वैभव मन, वचन कायकी चेष्टारूपी छिद्रके होनेपर कार्माणरज आत्म प्रदेश में प्रवेश कर जाते हैं । ससे आस्रव कहते हैं। मूलतः पांच भेदके द्वारा वह आस्रव विभक्त होता है और उत्तर भेदोंसे ५७ भेदोंसे विभक्त होता है। परन्तु यह सब इन मन, वचन, काय के द्वारा ही होते हैं । उनको योग कहते हैं। पहिले अन्दर जाते समय पूदगलरजके रूपमें रहते हैं। बादमें भावकर्मका सम्बन्ध जय हो जाता है तय कर्मरूपमें परिणत होते हैं। यह आस्रव तत्व है। आगे बंधतत्वका निरूपण करेंगे। मन वचन कायके सम्बन्धसे अन्दर प्रविष्ट बह रज क्रोध, राग, मोह के सम्बन्धसे कर्मरूप परिणत होकर उसी समय आत्मप्रदेशमें बद्ध होते हैं। उसे 'ष कहते हैं । आरमप्रदेशमें प्रविष्ट करते हुए आस्रव कहलाता है। परन्तु वहाँपर जीवात्माके प्रदेश में बद्ध होने के बाद बंध कहलाता है। आन्नब व बंध इतना ही अंतर है । बस सक्षम रज में दो गण विद्यमान हैं। एक स्निग्ध व एक रूक्ष । स्निग्ध गुण हो ममकार है और रूक्ष ही क्रोध है। इन दोनों गुणोंके निमित्तसे आत्मप्रदेश में वे बद होते हैं। अग्निसे अच्छी तरह तप्त लोहेका गोला जिस प्रकार चारों तरफसे पानीको खींच लेता है उसी प्रकार भावकर्मरूपी अग्निसे सन्तप्त यह जीव सर्वांगसे कर्मजलको ग्रहण करता है । क्षुधाकी निवृत्ति व तृप्तिके लिए ग्रहण किया हुआ आहार शरीरमें पहुंचकर उदराग्निके सम्बन्धसे सप्तधातुओंके रूपमें परिणत होता है, उसी प्रकार पुद्गल परमाणु आत्मप्रदेशमें पहुंचकर भावकमके सम्बन्धसे अष्टकर्मक रूपमें परिणत होते हैं । ___ जिस समय कर्मबद्ध होते हैं उसी समय वे फल नहीं देते हैं। आत्मप्रदेशमें बद्ध होने के बाद कुछ समय रहकर, स्थितिके पूर्ण होनेपर जिस समय छूट कर जाते हैं, उस समय जीवको सुख या दुःखके अनुभव करा कर जाते हैं। बीजको बोनेपर चाहे वह कटुबोज हो या मधुरबीज हो, बोते ही फल प्राप्त होते नहीं, अपितु कालांतरमें ही प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार पुण्यपाप कर्मके फलस्वरूप सुख-दुःख संगृहीत होकर कालांतरमें ही अनुभवमें आते हैं । सुखके समय फूलकर दुःखके समय खिन्न होनेसे पुनश्च
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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