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भरतेश वैभव हे सिवात्मन् ! आप आकाशरूपी पुरुष हो, आकाशके आकार में हो, आकाशरूपी हो, आकाशरूपी शरीरसे युक्त हो, आकाशाधार हो। इसलिए हे निरंजनसिद्ध ! मुझे सन्मति प्रदान कीजिये।
इति दिव्यध्वनिसंधिः
तत्वार्थ संधिः
देवाधिदेव भगवान् आदिप्रभुने सस रविक्रीतिगजको आत्मकल्याणके : लिए जीवादि सप्ततत्त्वोंका निरूपण किया 1 क्योंकि लोकमें तीर्थंकरोंसे अधिक उपकारक और कोई नहीं है।
हे भव्य रविकीर्ति ! सुनो, अब सप्ततत्त्वके मूल, रहस्य आदि सबका वर्णन करेंगे, बादमें कौंको नाशकर कैवल्यको पानेके विधानको भो कहेंगे। अच्छी तरह सुनो । तत्त्व सात हैं, जीव, अजीव, आसक, बंध, संवर, निर्जरा व मोक्ष । इस प्रकार सात तत्त्वोंके स्वरूपको सुनो । जोव बढात्मा कहलाते हैं । तीन शरीरसे रहित जीव शवात्मा कहलाते हैं। सिट परमात्मा मुक्त हैं, उनको कोई शरीर भी नहीं है। सिद्ध, मुक्त, निर्देही इन सब शब्दोंका एक ही अर्थ हे संसारी, वृद्ध, संदेहो इन शब्दोंका अर्थ एक हो है।
स्पर्शन, रसना प्राण, चक्ष, श्रोत्र, इस प्रकार पांच इन्द्रिय व दश प्राणोंका धारण करनेवाले शरीर व कर्मसे युक्त संसारी जीव कहलाते हैं। इन्द्रिय, शरीर, कर्म, प्राण, इनका नाश होकर जब यह आत्मा ज्ञानेन्द्रिय वज्ञान शरीरको पाकर मुक्ति सुखको पाता है, उस समय शुद्ध जीव अथवा मुक्त जीव कहलाता है। हे भव्य ! जितने भी जीव मुक्त हुए हैं वे सब पूर्वमें संसार युक्त थे अनन्तर युक्तिसे कर्मको नाशकर शरीरके अभाव. में मुक्त हुए हैं, मुक्तजीव सदासे मुक्तिमें ही रहते आये नहीं, अपितु विचार करने पर वे संसार में ही रहते थे। परन्तु कर्मको दूरकर मुक्तिको गये हैं। वे संसारमें अब वापस नहीं आते हैं। उनको नित्य हो मुक्ति है । हे रविकीर्ति ! आप लोगोंके भी कर्मका नाश हो जाय तो आप लोग भी