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भरतेश वैभव उनके समान ही मुक्त होंगे। यह संसार निस्य नहीं है। भव्योंके लिए वह अविनश्वर मुक्ति ही निस्य है। __ हे भव्य ! उन जीवोंमें भव्य व अभव्योंका भेद है। भव्य तो मुक्तिको पाते हैं। अभव्य मक्तिको प्राप्त नहीं कर सकते हैं। भव्योंमें भी सारभव्य और दूरभग्य इस प्रकारक्षे मेध है। सासरच तो मुसिको प्राप्त करते हैं । दूरभव्य तो बिलम्बसे मुक्तिको जाते हैं।
कुछ भवोंमें मुक्ति पानेवाले सारभव्य हैं। अनेक भवोंमें मुक्ति पानेवाले दूरभव्य हैं। इतना ही अन्तर है। सारभव्य हो या दूरभव्य हो जो मोक्षकलाको पानेवाले हैं वे सुखो हैं।
अभव्य जीव इस जन्म-मरणरूपी संसार में परिभ्रमण करते हैं। वे 'दुःख देनेवाले फर्मको नष्ट कर मुक्तिको प्राप्त नहीं करते हैं।
वे अभव्य जीव शरीरको कष्ट देकर उन तप करते हैं। अहंकारसे शास्त्र पठन करते हैं व अपनी विद्वत्ताका प्रदर्शन करते है, स्वर्गमें जाते हैं इस प्रकार संसारमें हो परिभ्रमण करते हैं। मुक्तिको नहीं जाते हैं। आत्मसिद्धको नहीं पाते हैं । स्वर्ग में व ग्रेवेयक विमानपर्यंत जाते हैं। फिर भी दुर्गतियोंमें ही पड़ते हैं । वे अज्ञानी अपवर्ग में चढ़ते नहीं हैं।
नरक, तिबंध, निगोदराशि आदि नीच योनियों में व मनुष्य देव बाधि गतियोंमें बार-बार जन्म लेते हैं। परन्तु मुक्तिको प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
बीच में ही रविकीतिने प्रश्न किया कि स्वामिन् ! तपश्चर्या कर व अनेक शास्त्रोंको अध्ययन कर भी वे मुक्तिको क्यों नहीं पाते हैं ?
उत्तरमें मगवंसने कहा कि सपश्चर्या व शास्त्रपठन बाहाचरण है। वह अस्मिविचार नहीं है । आत्महितके लिए तो आत्मध्यानको ही आव. श्यकता है। उसका निरूपण आगे करेंगे । अस्तु वह भव अभव्योके लिए ध्रुव है भज्यों के लिए ध्रुव नहीं है। उनको तो मुक्ति ही ध्रुव है । जीवोंमें मुक्तजीय, संसारीजीवका नामभेद होनेपर भी शक्तिको अपेक्षासे कोई अन्तर नहीं है। आत्माको शक्तिको जो व्यक्तमें लाते हैं वे मुक्तषीय हैं। व्यक्तमें न लगनेवाले संसारो जीव है। क्योंकि आत्माको शक्ति तो एक है।
सिद्धोंको निर्मल आत्माका गुण चिद्गुण है, बुद्धात्माओंका गुण भी वहीं है। सिखात्मा ज्ञानी है बुवात्मा भी शानी है शुद्ध व बुद्धका ही भेद