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भरतेश वैभव
नामक दो शरीर हैं। इस प्रकार तीन शरीररूपी कैदलाने में यह जीव फँसा हुआ है। इसे भी ध्यान में रखना ।
कर्मों के मूलसे आठ भेद हैं। तीन देहमें वे आठ कर्म उत्तर भेदसे एकसी अड़तालीस भेदसे युक्त है । और भी उत्तरोत्तर भेदसे वे कर्म असंख्यात विकल्पों से विभक्त हैं। परन्तु मूल में आठही भेद जानना । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, दुःख देनेवाला वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, अंतराय इस प्रकार के आठ कर्म उन तेजस फार्माणशरीर में छिपे हुए हैं । उनके ऊपर यह औदारिक शरीर है । इस प्रकार तीन शरीररूपी में यह आत्मा है ।
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आठ कर्मोंमें चार कर्म घातियाकर्म कहलाते हैं । और चार अघातिया कर्म कहलाते हैं, मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय ये चार कर्म घतिया हैं |
हमने पहले कहा था कि आठ कर्म ही सब कर्मोंके मूल है। इन कर्मों के मूलमें तीन पदार्थ हैं। वह क्या है सुनो ! राग, द्वेष, मोह ये तीन कर्मों के मूल हैं। इनको भावकर्मके नामसे भी कहते हैं 1
उपर्युक्त आठ कर्म द्रव्यकर्म हैं। और तीन भावकर्म है और जो शरीर दिख रहा है वह नोकर्म है । इसलिए कर्मकाण्ड तीन प्रकारका है, द्रव्यकर्म, भावकर्म और नौकर्यं ।
नोकर्म यंत्र के समान है, द्रव्यकर्म तो खलके समान है। और भावकर्म तेलके समान है एवं आत्मा आकाशके समान है ।
जिस प्रकार तेलीके यहाँ यंत्र, खल, तेल व आकाश ये चार पदार्थ रहते हैं इसी प्रकार द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म और आत्माका एकत्र संयोग है । अर्थात् आत्मा इन तीनोंके बीच स्थान पाकर रहता है।
तीनों कर्मकांडों में वर्ण, रस, गंध, रूप, गुण मौजूद है । परन्तु आत्मा को वर्णादिक नहीं हैं, वह तो केवल सुज्ञानज्योतिसे युक्त है ।
उस तैलयंत्र के बीच में स्थित आकाशके समान यह आत्मा इस शरीर में पादसे लेकर मस्तकतक सर्वाङ्गमें सम्पूर्ण भरा हुआ है। चाहे लकड़ी मोटी हो या छोटी हो उसके प्रमाणसे अग्नि रहती है, उसी प्रकार यह शरीर मोटा हो या छोटा हो उसके प्रसाणसे आत्मा गुरुदेह लघुदेह में रहता है । लकड़ी के भागको उल्लंघन कर अग्नि नहीं रह सकती है । जितने प्रमाण में लकड़ी है उतने ही प्रमाण में अग्नि है । इसी प्रकार यह आत्मा