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________________ भरतेश वैभव कोई कह रहे हैं कि भाई ! इस कथाके लिए यह सुक्षेत्र है। यह मार्ग संमारको दूरकर मुक्ति पहुँचानेका मार्ग है। इसलिए अब बस कीजिये ! आप बहुत थक गये। यह कहते हुए आनन्दके साथ उस केलाग पर्वतपर चढ़ रहे हैं। जब इस प्रकार की यात्राा तत्त्ववकेि मध्य प्रसार का पर्वतपर चढ़ रहे थे, तब समवसरणसे सुरभेरीका शब्द दंषण दिम्मभो. भॊरके रूपसे दूरसे सुनने में आया । कुमागेको और भी आनन्द हआ। पाठक ! भरतकुमागेकी विद्वत्तासे चकित हुए बिना नहीं रहेंगे। अत्यन्त अल्पवयमें विरक्तिका प्रादुर्भाव होना, साथमें विशिष्ट ज्ञानका भी उदय होना मामान्य बात नहीं है। खासकर जिस तारुण्यसे यह चंचलमन विकृत हाकर स्त्रियोंके जाल में फैमता है, ऐसे विकट समयमें विवेकजागति होना मचमुच में पूर्व जन्मके सातिशय पुण्यका ही फल समझना चाहिये । सामान्यजों को यह मान्य ही नहीं है। ऐसे इन्द्रियविजयी, विवेको, विज्ञान पुत्रों को पानेवाल. भरलेश्वर भी असदृश पुण्यशाली हैं। वे सदा अपने आगध्यदेवको इस प्रकार स्मरण करते हैं कि "हे परमात्मन् ! आप काविरोधी हैं, कामित फलदायक हैं, योमसन्निभ हैं, चिन्मय है, क्षेमकर हैं। इसलिए हे चिदंबरपुरुष ! स्वामिन् ! मेरे अन्तरंगमें सवा बने रहो। हे सिद्धात्मन् ! आप पापरूपी गेहेको पीसनेके लिए चक्कोके समान हैं। किटकालिमावि दोषोंसे रहित सुवर्णके समान शुखस्वरूप हैं। हे रत्नाकरसिद्धके गुरु निरंजनसिद्ध ! मुझे सन्मति प्रदान कीजिये । इसी भावनाका वह फल है। इति समवसरण संधिः दिव्यध्वनि सन्धिः ममवसरणसे भेरी शब्दको सुनते ही कुमार आनन्दसे नाचने लगे। जैसे कि मेघके शब्दसे मयूर नृत्य करता है । विशेष क्या ? उन राजपुत्रोंने समवसरणको प्रत्यक्ष देखा। समवसरणके दिखनेपर हाप जोड़कर भक्सिसे मस्तकपर चढ़ाया, व
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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