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________________ मरतेश वेभव १२९ अष्टमदरूपी मदगजोंको नष्ट करनेवाले आदिभगवतसे शिष्टजन है ! गजासुरमर्दन ! हमारे इष्टकी पूर्ति करो, इस प्रकार प्रार्थना करते हैं । भगवंत कोपरूपो व्याघ्रको शीघ्र ही नष्ट कर देते हैं, इसलिए उनको व्याघ्रसुरवैरो के नामसे कहकर जय-जयकार करते हैं । चंद्रमंडलके समान छत्रत्रय भगवंतके मस्तकके ऊपर रुंद्रवैभवसे सुशोभित होते हैं ! इसलिए उनको गंद्रशेखर पा इंद्रमौलिक नामसे कहकर स्तुति करते हैं। भगवतके शरीरमें दाहिने ओर बायें ओर दो नेत्र तो विद्यमान हैं बीच में सुज्ञाननामक तीसरा नेत्र है। इसलिए उनको त्रिनेत्रके नामसे भी कहते हैं। ___ ललाटमें अपने मनको स्थिर करके आत्माको देखते हुए क्षणभरमें जिन्होंने कमंजालको जलाया ऐसे भगवतको ललाटनेत्र भी कहते हैं, उषणनेत्र भी कहते हैं । यह सब गुणकृत नाम हैं। कनक कमलके ऊपर भगवान् विराजमान हैं इसलिए उनको कमलासन कहते हैं। चारों तरफके पदार्थोको वे देखते हैं, जानते हैं, इसलिए उनको चतुर्मुखके नामसे कहकर देवगण स्तुति करते हैं। ___ जो नष्टमार्गी हैं अर्थात् धर्मकर्मको न मानकर मोक्षमार्गको मूल जाते हैं, उनको कैवल्यमार्गको स्पष्ट रूपसे भगवंत निर्माण कर देते हैं, इसलिए उनको भक्तिसे भव्यगण सृष्टिकर्ताके नामसे कहते हैं । ब्रह्मको कमंडलु है, ऐसा कहते हैं, इससे मालूम होता है कि वह पवित्र देहसे युक्त नहीं है । परन्तु आदिब्रह्माका शरीर अत्यन्त पवित्र है, उनको प्यास भी नहीं है, अतएव उनके पास कमंहलु नहीं रहता है। ___ भगवंतके निर्मलज्ञानरूपी कमरेमें तीन लोकके समस्त पदार्थ एक साथ प्रतिबिंबित होते हैं। इसलिए उस आदिमाधव भगवंतको लोग तीन लोकको अपने उदरमें धारण करनेवाले पुरुषोत्तम नामसे कहते हैं। भाई ! जय शब्दका अर्थ जोतना है । लोकको व शत्रुओंको जीतनेसे जिन नहीं बन सकता है परन्तु अष्टादश दोषोंको जोतनेवाला हो जिन कहलाता है। भगवंतके पास बीस हजार केवली जिन रहते हैं उन सबमें भगवंत मुख्य हैं। इसलिए उनको जिननायकके नामसे कहते हैं। परमात्मा, शिव, परशिव, जिन, परब्रह्म, पुरुषोत्तम, सदाशिव, अह, देवोत्तम, वृषभनायक, आदिपरमेश आदि अनेक नामोंसे उनकी २-२
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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