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भरतेश वैभव शत्रु नहीं हैं । और दसरोंसे उनको अपाय नहीं हो सकता है, और वे भो किसीके प्रति प्रहार नहीं करते हैं। इसलिए उनको अस्त्र शस्त्रादिकको आवश्यक्ता नहीं।
इस भव में जो मंमारी जीव हैं वे अपने आशिरले लिए सपो देवके नामको जाते हैं। इसलिए उनकी जपमालाको आवश्यकता होती है । परन्तु भगवंतको भव नहीं है, और न उनको कोई देव हो है । ऐसो हालतमें परशिवके हाथमें जपमाला नहीं है। जप करते समय चित्त-- चांचल्य होनेसे भूल हो सकती है। इसलिए १०८ मणिसे निर्मित जपमालाको हाथ में लेकर जप करते हैं। वे लोकके अन्दर व बाहर कैसे जान सकते हैं? __परमात्मसुखसे जो विरहित है, वे कामसुखके आधीन होकर स्त्रियों के जालमें फंसते हैं। परन्तु जिनेन्द्र भगवंतको परमात्मसुखको प्राप्ति हुई है । भाई ! इसीलिए उनको रानियोंकी आवश्यकता नहीं है।
लोकमें अपने देहको सजानेके लिए शृंगार करते हैं। परन्तु निसर्ग सुन्दर जिनेन्द्र के सुन्दर शगेरके लिए श्रृंगारकी क्या जरूरत है ? वस्त्र, आभरण अदिकी अपेक्षा तो सौन्दयरहित शरीरके लिए है।
भाई ! विचार करो। करोड़ों चन्द्रसूर्योके प्रकाशसे युक्त शरीरको यदि वस्त्रसे ढके तो क्या वह शोभित हो सकता है? कभी नहीं । वह तो उत्तम दिव्यरत्नको वस्त्रके अन्दर बांधकर रखनेके समान है। उसमें कोई शोभा नहीं है। भगवंतक दिव्यप्रकाशयुक्त शरीरके सामने रत्नादिककी शोभा ही क्या है ? सामान्य दोपकको माणिकरत्नका संयोग क्यों ? जिनेन्द्र भगवंतको रलाभरणको आवश्यकता हो क्या ? ___ भगवंतको कांति ही देह है, कांति ही वस्त्र है और कांति हो आभूषण है। इसलिए भगवंतको कातिनाथ, माणिक्यनाथ आदि दिव्य नामोंसे उच्चारण करते हैं।
देवगण भगवंतका दर्शन कर आनन्दित होते हैं एवं पादकमलमें पंक्तिबद्ध होकर नमस्कार करते हैं, उस समय भगवंतके पादनखोंमें वे देवगण प्रतिबिंबित होते हैं, इमलिए उनको रुण्डमालाधरके नामसे भो कहते हैं।
भगवंतने भव्योंके भवबंधनको ढीला कर पापरूपी अन्धकारको दूर किया । इसलिए उनको पुण्यबंध करनेकी इच्छा करनेवाले भव्य भक्तिसे अन्धकासुरको मर्दन करनेवाला कहते हैं।