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भरतेश वैभव भक्तिसे निर्मित अतिशय चौदह हैं । इस प्रकार भगवंत चौतीस अतिशयोंसे युक्त हैं। ___ आठवीं भूमि और नववीं भूमि, इस प्रकार दोनोंको मिलाकर कोई कोई लक्ष्मी मंडपके नामसे वर्णन करते हैं । ___ मुनिगण आदि लेकर द्वादशांग सभा को संपत्ति व त्रिलोकाधिनाथके होनेसे उस प्रदेशको लक्ष्मीमंडप या श्रीमंडपके नामसे कहा जाय, यह उचित ही है। अत्यन्त सुंदर सुवर्ण निर्मितस्तंभ ब नवरत्नसे निर्मित शिखर और माणिक्यसे निर्मित कलश होनेसे उसे गंधकुटीके नामसे भी कहते हैं । चार सिहोंके ऊपर जो सहलदल कमल विराजमान है, उसका सुगंध, देवोंक द्वारा होनेवाली पुष्पवृष्टिका सुगंध एवं त्रिलोकाधिपति तीर्थकर प्रभुके शरीरका सुगंध, इनसे वह भरी हुई है, इसलिए उसे गंधकुटी कह सकते हैं। ___ आढों मूविको गीर गाम भी कहते हैं। क्योंकि वहाँपर गणधरादि योगी विराजमान हैं । वहाँपर बारह कोष्टक हैं। उन बारह कोष्टकोंमें गणधरादि बारह प्रकारके भव्य विराजमान होकर तत्वश्रवण करते हैं।
मुनिगण, देवांगनायें, अजिंकायें ज्योतिर्लोककी देवांगनायें, व्यंतर देवियाँ, नागकन्यायें, भवनवासी देव, व्यंतरदेव,ज्योतिष्क देव,वैमानिक देव, मनुष्य व अतिकोष्टकमें सिंह इस प्रकार बारह गण क्रमसे विराजमान हैं।
भगवान् पूर्वाभिमुख होकर विराजमान हैं। परन्तु द्वादशगण उनको प्रदक्षिणा देकर अपने-अपने स्थानपर बैठते हैं। जिनेन्द्र भगवंतके सामने हो सब विराजते हैं । सबसे पहले ऋषि, अंतिम कोष्टकमें सिंह । इस प्रकार वहाँकी व्यवस्था है । आसन्नभव्य ! वीरंजय ! सुनो ! गणभेदसे बारह विभाग हैं ! गुणभेदसे तेरह भेद हैं। उसके रहस्यको भी खोलकर कहता हूं| अच्छी तरह सुनो।
जिस प्रकार राजाको मंत्रिगण होते हैं, उसी प्रकार तीन लोकके प्रभुफी दरबारमें भी चौरासो गणधर मंत्रिस्थानमें रहते हैं। वे गणधरके नामसे विख्यात हैं। अनुज सुनो ! श्रुतज्ञानसागर व चौदह पूर्व शास्त्रोंको धारण करनेवाले योगी उस दरबारमें चार हजार सात सौ पचास (४७५० } हैं।
सप्त तत्वोंमें चार तत्त्व अर्थात् जीव, संवर, निर्जरा मोक्ष ये उपादेय हैं, और अजीव, आस्रव, बंध ये तीन तस्व हेय हैं। वहाँपर ऐसे