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________________ -PANA ११८ भरतेश वैभव उस पाकणिकासे ४ अंगुल स्थानको छोड़कर आकाशमें पनरागमणिकी कान्तिसे युक्त पादकमलको धारण करनेवाले भगवान आदि प्रभु पदमासनसे विराजमान हैं। दो करोड़ बालसूर्योके एकत्र मिलनेपर जिस प्रकार कान्ति होती है उसी प्रकार की सुन्दर देहकान्तिसे युक्त भगवंत कान्तिके समुद्रमें ही विराजमान हैं। तीन लोकके लिए एक ही देव हैं, यह लोकको सूचित करते हुए मोतियोंसे निर्मित छत्रत्रय सुशोभित हो रहे हैं। देवगण शुभ्र चौसठ चामर भगवानके ऊपर डोल रहे हैं 1 मालूम होता है कि भगवंत क्षीरसमुद्रके तरंगके ऊपर ही अपने दरवारको लगाये हुए हैं। जिनेन्द्रके रूपको देखकर इन्द्रचापने स्थिरताको धारण कर लिया हो जैसा भामंडल शोभाको प्राप्त हो रहा है । भगवतके दर्शन करने पर शोक नहीं है इस बातको अपने आकासी लोकको घंटाघोषसे कहते हुए नवरत्नमय अशोकवृक्ष विराजमान है। ____ आकाशमें खड़े होकर स्वर्गीय देवगण वृषभपताक ! हे भगवन् ! आपको जय हो इस प्रकार कहते हुए स्वर्गलोकके पुष्पोंको वृष्टि लोकनाथके मस्तक पर कर रहे हैं। दिमि दिमि, दंधण, धदिमि, दिमिकु भुं भू भुं भू इत्यादि रूपसे उस समवशरणमें शंख पटह आदि सुन्दर वाद्योंके शब्द सुनाई दे रहे हैं। दिव्यवाणीश भगवंतके मुखकमलसे नव्य, दिव्य, मृदु, मधुर, गभीरतासे युक्त एवं भव्य लोकके लिए हितकर दिव्यध्वनिको उत्पत्ति होती है। पुष्पवृष्टि, अशोकवृक्ष, छत्रत्रय, चामर, दिव्यध्वनि, भामंडल, भेरी, सिंहासन, ये ही भगवंतके सातिशय अष्ट चिह्न हैं। इन्हींको अष्ट महाप्रातिहार्यके नामसे भी कहते हैं। भाई ! और एक आश्चर्यकी बात सुनो! समवशरणमें विराजमान भगवंतको एक ही मुख है, तथापि चारों ही दिशाओंसे आकर भव्य खड़े होकर देखें तो चारों ही तरफसे मुख दिखते हैं । इसलिए वे प्रभु चतुर्मुखके समान दिखते हैं। भगवतके दस अतिशय तो अनन उभयमें ही प्राप्त होते हैं। और दस अतिशय पातिया कोंके नाश करनेसे प्राप्त होते हैं। और देवोंके द्वारा the.T Lan वाम
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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