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भरतेश वैभव वह देवनगरी वेष्ठित है। पहिला परकोटा नवरत्न निर्मित है, तदनन्तर दो सुवर्णके द्वारा निर्मित हैं। लागेका एक परसामणिः गिति है। तदनन्तर तीन सुवर्णसे निर्मित हैं । तदनन्तर दो स्फटिकसे निर्मित हैं।
समवशरणके वर्णनमें चार साल व पांच वेदिकाओंका वर्णन करते हैं | इन परकोटोंसे ही चार साल और पांच वेदिकाओंका विभाग होता है।
चारों दिशाओं में चार द्वार हैं। और चारों ही द्वारोंके बाहर अत्यन्त उन्नत चार मानस्तंभ विराजमान हैं।
९ परकोटोंमें ८ परकोटोंके द्वारपर द्वारपालक हैं। नवमें परकोटके द्वारपर द्वारपालक नहीं है । उन परकोटोंके बीचको भूमिका वर्णन सुनो ।
पहिले प्राकारसे सुवर्णसे निर्मित गोपुर, रत्नसे निर्मित जिनमन्दिर सुशोभित हो रहे हैं । उससे आगे उत्तम तीर्थगंधोदक नदीके रूपमें दूसरी प्राकार भूमिमें बह रहा है। अत्यन्त हृद्य सुगन्धसे युक्त फूलका बगीचा अनवध तीसरे प्राकारभूतलपर मौजूद है । एवं चौथी प्राकारभूमिमें उद्यान वन, चैत्यवृक्ष वगैरह मौजूद हैं । पाँचवीं भूमिमें हाथी, घोड़ा बल आदि भव्य तियेच प्राणी रहते हैं। छठी वेदिकामें कल्पवृक्ष, सिद्धवृक्ष आदि सुशोभित हो रहे हैं। ७वों वेदिका जिनगीत वाद्य नृत्य आदिके द्वारा सुशोभित हो रही है | आठवीं वेदिकामें मुनिगण, देवगण, मनुष्य आदि भव्य विराजमान हैं। इस प्रकार समवशरणकी माठ वेदिकाओंका वर्णन है।
अब नवम दरवाजेके अन्दरको बात सुनो ! उसका वर्णन करता हूँ, द्वारपालसे विरहित नवम प्राकारमें तीन पीठ विराजमान हैं | भाई ! वोरंजय ! उनकी शोभाको सुनो!
एक पीठ वैडूर्यरत्नके द्वारा निर्मित है, उसके ऊपर सुवर्णके द्वारा निर्मित दुसरा पीठ है। उसके ऊपर अनेक रत्नोंसे निर्मित पीठ हैं। इस प्रकार रत्नत्रयके समान एकके ऊपर एक, पीठत्रय विराजमान हैं। __ सबसे ऊपरके पीठपर अनेक रत्नोंके द्वारा कोलित चार सिंह हैं । उनकी आँखे खुली व लाल, उगा हुआ पुच्छ, एवं केशर, जटाजाल विखरा हुआ है । पूर्व, पश्चिम, दक्षिण व उत्तर दिशाकी और उनमें एकेक सिंहकी दृष्टि है । उनको देखनेपर मालूम होता है कि वे कृत्रिम नहीं है । साक्षात् जीव सहित सिंह ही हैं। उन सिंहों के ऊपर एक सुवर्णकमल हजार दलसे युक्त है । केदार व कणिकासे युक्त होनेके कारण दशोंही दिशाओंको अपने सुगन्धसे व्याप्त कर रहा है ।