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भरतेश वैभव है। हे परमात्मन् ! मुझे तुम्हारे सच्चे रूपदर्शनकी सामर्थ्य दो वैसी सद्बुद्धि मेरे अन्दर उत्पन्न हो भगवन् ! मेरी आशाको पूर्ण कीजिये ।
एक दिनकी बात है भरतेश प्रातःकालकी नित्य क्रियाओंसे निवृत्त होकर अपने ऊपरके महलमें नवरलमय मण्डपमें जाकर विराजमान हैं।
सोने के उस महल में स्थित नवरत्न मण्डपमें लालकमलके समान सिंहासनपर आसीन राजेन्द्र देवेन्द्र के समान मालूम होते थे।
पीछेकी ओर झल्लरीदार मुलायम तकिया, इधर-उधर शीतल हवा बहानेवाली देवदासियां, तथा सम्राट्के देहपर स्थित दिव्यवस्त्र सचमुचमें अद्भुत शोभा दे रहे थे । इतना ही क्यों ? शरीरकी कांति, आभुषणको कांति, उस मण्डपकी कांति आदिके फैल जानेसे जनपति भरत उस समय दिनपतिके उदय कालमें साक्षात् दिनपति (सूर्य) ही मालूम हो रहे थे। ____ इतनेमें अन्तःसभाके योग्य सर्व सामग्री वहां एकत्रित होने लगी। अनेक मंगलद्रव्योंको लेकर दासियाँ सेवामें उपस्थित हुई। वीणा किनरि, वेणु आदि वाद्योंको लेकर गायन करनेवाली स्त्रियाँ आई और भरतेश्वरको बहुत विनयके साथ नमस्कार करने लगी। .
हाथमें बेतको रखनेवाली व्यवस्थापक स्त्रियाँ 'हटो, रास्ता छोड़ो, इन्हें बुलाबो, उन्हें बुलावी आदि शब्दको करती हुई अपनी-अपनी सेवा कर रही थीं। ___ भरतेशकी रानियोंको काव्यका अध्ययन जिसने कराया था वह पण्डिता नामकी दासी भी वहाँ आकर उपस्थित हुई । राजेन्द्रको प्रणाम कर अपने स्थानमें बैठ गई। ___ इसी प्रकार सब रानियां शृङ्गार करके भरतेशके दर्शनार्थ अपने हाथमें उत्तमोत्तम बेटोंको लेकर उस महलपर चढ़ रही थी। ऐसा मालम होता था मानो कामदेवके दर्शनार्थ उनकी स्त्रियाँ मेरु पर्वतपर चढ़ रही हो।
बहिन ! देखकर आओ, सावधानीसें आओ, जरा हमारे हाथको तो पकड़ो, इस प्रकार मुझे छोड़कर क्यों दौड़ती हो ? घबराओ मत । आओ, आओ बहिन, इस प्रकार परस्पर कई प्रकारका वार्तालाप करती हुई वे उस महलपर चढ़ रही थी।