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भरतेश वैभव
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रानियोंने कहा – 'बहिनी आइये । आप बहुत थक गई हैं। हम अब आप लोगोंको' परोसेंगी, ऐसा कहकर बाकी बची रानियोंको बहुत आनन्दसे भोजन कराया ।
भरत चक्रवर्ती आँख खोलकर "जिनसिद्धशरण" ऐसा उच्चारण कर वहाँसे उठे एवं विश्रान्ति के लिए चन्द्रशालामें पहुँचे । वहाँपर भी रानियाँ पहुँचकर पतिसेवा करने लगी। कोई पंखा करने लगी, कोई गुलाबजल छिड़कने लगी, कोई पैर दबाने लगी । इस प्रकार, अनेक भाँतिकी सेवा करने लगी ।
हे परमात्मन् ! तुम्हारा रूप बहुत विचित्र है लिखने में नहीं आता, सुधारने में नहीं आता । मंथन करनेपर भी नहीं मिल सकता। अभव हो इसलिये मेरी कामना है कि मेरे हृदय में सदा रहो। यह भरतके नित्यका विचार है ।
इति राजभुक्ति संधि
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राजसोध संधि
हे परमात्मन् ! तुम्हारा रूप विचित्र है। कोई कुशल चित्रकार तुम्हारे चित्रको चित्रित करना भी चाहे, तो वह चित्रित नहीं कर सकता है । बिगड़ने पर सुधरने की बात तो दूर ही रहे। समुद्रके मंथन करनेपर जिस प्रकार अनेक प्रकारके पदार्थोंकी प्राप्ति हुई थी ऐसी लोकोक्ति है, दहीको मथनेपर जिस प्रकार मक्खन निकलता है, उसी प्रकार क्या किसी वस्तुका मंथन करनेपर तुम मिल सकते हो ? नहीं। क्योंकि तुम्हारे रूप नहीं है । आकार नहीं है। कोई तुम्हें स्पर्श नहीं कर सकता | देख नहीं सकता । तुममें कोई शब्द नहीं है, इसलिए गुन नहीं सकता । तुममें कोई गन्ध नहीं, इसलिये कोई मुँघ नहीं सकता । फिर भी हे आत्मन् ! मैं प्रार्थना करता हूँ कि मेरे हृदय में तुम वैसे ही अंकित रहो, जैसे किसीने तुम्हारे चित्रको लिख छिपाकर रखा हो ।
हे सिद्धात्मन् ! तुम्हारी महिमा अपार है । अनन्त अमृत संपत्तियों को धारण करनेपर भी लोकको एक अकिंचनके समान दिखते हो 1 आभरणोंके नहीं होनेपर भी अत्यन्त सुन्दर हो । तुम्हारी बातें कृत्रिम नहीं स्वाभाविक है । क्योंकि तुम यथार्थपदको प्राप्त कर चुके हो । भक्तजन अपने विचारोंके विकारसे कुछका कुछ समझे यह दूसरी बात