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भरतेश वैभव पासमें है। ऐसी अवस्थामें समवशरणका वर्णन सुनना चाहते हों । आप लोग चलो, वह समवशरण कैमा ई अपनी आँखोंसे ही देखेंगे । ___ तब वीरंजयकुमारने कहा कि भाई ! आप यदि समवशरणका वर्णन करें तो हम लोग उसे सुनते-सुनते रास्ता जल्दी तय करेंगे। और लोकेकगुरु श्रीभगवतका पुण्यकथन हम लोगोंने श्रवण किया तो आपकर क्या बिगड़ता है ? कहिये तो सही।
तब रविकोतिराजने कहा कि भाई ! तो फिर सुनो । मैं अपने पिताके साथ भगवतका दर्शन कर चुका हूँ। वे प्रभु जिस समवशरणमें विराजमान हैं, वह तो लोकके लिए विचित्र वस्तु है।
जिनसभा, जिनदास, समवशरण व जिनपुर यह सब एक हो अर्थक वाचक शब्द हैं। जिनेन्द्र भगवंत जिस स्थानमें रहते हैं उसी स्थानको इस नामसे कहते हैं । उसका मैं वर्णन करता हूँ, सुनो !
इस कैलासको स्पर्श न कर अर्थात् पर्वतसे पाँच हजार धनुष छोड़कर आकाश प्रदेशमें वह समवशरण विराजमान है। उसके अतिशयका क्या वर्णन करूं?
उस समवशरणके लिए कोई आधार नहीं है । परन्तु तीन लोकके लिए वह आधारभूत राजपहलके समान है। ऐसी अवस्थामें इस भूलोकको वह अत्यन्त आश्चर्यकारक है।
दुनियाँ में हर तरहसे कोई निस्पृह है तो भगवान् अर्हतप्रभु हैं । इसलिए उनको किसी भी प्रकारको पराधीनता नहीं है । वे अपनी स्थिति के लिए भी महल, समवशरण, पर्वत आदिके आधारकी अपेक्षा नहीं करते हैं । इसलिए लोकोत्तर महापुरुष कहलाते हैं। देवेन्द्रको आज्ञासे कुबेर इन्द्रनीलमणिकी फरसीसे युक्त समवशरणका निर्माण करता है वह चन्द्रमण्डलके समान वृत्ताकार है और वह दिवसेन्द्रयोजनके विस्तारसे युक्त है । देखने व कहने के लिए तो वह बारह कोस प्रमाण है, तथापि कितने ही लोग उसमें आवें समा जाते हैं | करोड़ों योजनका विस्तारका आकाश प्रदेश जिस प्रकार अवकाश देता है, उसी प्रकार समागत भव्योंके लिए स्थान देनेको उसमें सामर्थ्य है। जिस प्रकार हजारों नदियाँ आकर मिल, और पानी कितना ही बरसे तो भी समुद्र उस पानीको अपने में समा लेता है व अपनी मर्यादासे बाहर नहीं जाता है, उसी प्रकार वह समवशरण आये हुए समस्त भव्योंके लिए स्थान देता है।