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- भरा वैभव
समवशरण संधिः
भरतजोके सो कुमार आपसमें प्रेमसे बातचीत करते हुए भगवान् आदि प्रभके दर्शन के लिए केलासपर्वतकी ओर जा रहे हैं । दूरसे कैलास पर्वतको देखकर वे आनन्दित हुए।
सफेद आकाश भूमिके अन्दर अंकुरित होकर ऊपर फूलकर पर्वतके रूपसे बन गया हो, इस प्रकार वह कैलास पर्वत अत्यन्त सुन्दर मालूम हो रहा था। और चाँदनी रात होनेसे और भी अधिक चमक रहा था। अनेक चन्द्रमण्डल मिलकर यह एक पर्वत तो नहीं है ? अथवा यह चन्द्रगिरी है या रजतगिरी है । इस प्रकार इन्द्रवेभवयुक्त वे कुमार विचार कर देखने लगे। क्षीरसमुद्रही पर्वतके रूपमें तो नहीं बना है? यह तो चित्तको बहुत ज्यादा आकर्षित कर रहा है । क्या यह क्षोरपर्वत है या रजतपर्वत है ? क्या ही अच्छा है ? इस प्रकार प्रशंसा करने लगे।
भगवान आदिप्रभुको धवलकीति ही मूर्तस्वरूपको पाकर यह पर्वत तो नहीं बनी है ? अथवा भव्योंका पुण्यपर्वत बन गया है ? जिन ! जिन ! आश्चर्य है। यह कहते हुए वे उस पर्वतके पास पहुंचे।
उस पर्वतको देखकर उनके हृदय में उसके प्रति आदर उत्पन्न हुआ। सुवर्णपर्वत पांच हैं। रजताद्रि तो एक सौ सत्तर है, परन्तु हे पर्वतराज ! तुम्हारे समान समवशरणको धारण करनेका भाग्य उन पर्दतोंको कहाँ है।
सिद्धलोकको जानेके लिए यह एक सूचना है। इसपर चढ़ना सिद्धशिलापर चढ़ने के समान है। यह विचार करते हुए एवं वचनसे 'सिद्ध नमो' यह उच्चारण कर उन्होंने उस पर्वतपर चढ़नेके लिए प्रारम्भ किया। मनमें अत्यन्त सुन्दर विचार करते हुए पंक्तिबद्ध होकर वे कुमार उस कैलास पर्वतपर अब चढ़ रहे हैं। उस समय अपने मनमें कुछ विचार कर वीरंजय राजकुमारने बड़े भाई रविकोतिराजसे एक प्रश्न किया भाई ! अपने एक बार पिताजीके साथ भगवान् का दर्शन किया है, तो भगवंत. का दरबार कैसा है उसका कृपाकर वर्णन तो कोजिये । ___ रविकीतिराजने उत्तरमें कहा कि भाई ! खूप ! तुमने ऐसा प्रश्न किया, जैसे कोई किसी बड़े नगरको देखनेके लिए जाता है तो बाहरकी गली में पहुंचनेके बाद नगरका वर्णन सुनना चाहता है इसी प्रकार अपन कैलास पर चढ़ रहे हैं, और शीघ्र समवशरणमें पहुंचेंगे। अब तो बिलकुल