SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 558
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ भरलेश वैभव आत्मा शुद्ध है, यह कथन निश्चयनयात्मक है। आत्मा कर्मबद्ध है, यह कथन ध्यबहारनपात्मक है। आत्माके स्वरूपको कथन करते हुए, सुनते हुए वह बद्ध है। परन्तु ध्यानके समय वह शुद्ध है । ____ आत्माको शुद्ध स्वरूपमे जानकर धान करने पर वह आत्मा कर्म दूर होकर शुद्ध होता है | आत्माको सिद्ध स्वरूप में देखनेवाले स्वतः सिद्ध होते हैं इसमें आश्चर्यकी बात क्या है । सिद्धबिम्ब, जिनबिम्ब आदिको शिला आदिमें स्थापित कर प्रतिष्ठित करना यह भेदभक्ति है । अपने शुद्धारमा उनको स्थापित करना वह अभेदभक्ति है, वह सिद्ध-पदके लिए युक्ति है। भेदाभेद-भक्तिका ही अर्थ भेदाभेद-रत्नत्रय है । भेदाभेद-भक्तियोंसे क को दूर करनेस मुनि का कोई साहिल बात नहीं है। ____ आत्मतत्वको प्राप्त करनेकी युक्तिको जानकर ध्यानके अभ्यास कालमें भेदभक्तिका अवलम्बन करें। फिर ध्यानका अभ्यास होनेपर वह निष्णात योगी उस भेदभक्तिका त्याग करें और अभेदभक्तिका अवलंबन करें। उससे मुक्तिको प्राप्ति अवश्य होगी । ___ स्फटिककी प्रतिमाको देखकर "मैं भी ऐसा ही हूँ" ऐसा समझते हुए आँख मींचकर ध्यान करें तो यह आत्मा उज्ज्वल चाँदनीकी पुतलीके समान सर्वागमें दीखता है 1 आत्मयोगके समय स्वच्छ चाँदनीके अन्दर छिपे हुएके समान अनुभव होता है । अथवा क्षीरसागरमें प्रवेश करनेके समान मालूम होता है। विशेष क्या ? सिद्ध लोकमें ऐक्य हो गया हो उस प्रकार अनुभव होता है । आत्मयोगका सामयं विचित्र है। आत्माका जिस समय दर्शन होता है उस समय कर्म झरने लगता है, सुजान और सुखका प्रकाश बढ़ने लगता है। एवं आत्मामें अनन्त गुणोंका विकास होने लगता है । आत्मानुभवोकी महिमाका कोन वर्णन करे ! ध्यानरूपी अग्निके द्वारा तैजस व कार्माण शरीरकी भस्मसात् कर आत्मसिद्धिको प्राप्त करना चाहिये । इसलिए भव्योंको संसारकांतारको पार करने के लिए ध्यान ही मुख्य साधन हैं । वहाँ पर किसीने प्रश्न किया क्या यह सच है कि गृहस्थ और योगिजन दोनों धर्मध्यानके अलसे उग्नकर्मोंका नाश करते हैं। कृपया कहिये। तब उत्तर दिया गया कि बिल्कुल ठीक है। आत्मस्वरूपका परिज्ञान धर्मध्यानके बलसे गृहस्थ और योगियों
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy